Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 55
________________ १०८ गुणस्थान विवेचन जो परिणाम सम्यग्दर्शन से सहित हो, परन्तु इन्द्रिय-विषयों से और त्रस - स्थावर की हिंसा से अविरत हो अर्थात् एकदेश या सर्वदेश किसी भी प्रकार के संयम से रहित हो, उस परिणाम को अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान कहते हैं । यहाँ चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्व के घातक कर्मों का उपशम, क्षय अथवा क्षयोपशम हो गया है। अतः व्यवहार और निश्चय दोनों सम्यग्दर्शन प्रगट हो गये हैं। मोक्षमार्ग का प्रारम्भ, आंशिक वीतरागता, संवर-निर्जरा, सच्चासुख, सम्यग्ज्ञान- ये सभी यहाँ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में एक साथ ही व्यक्त होते हैं। निश्चय सम्यग्दर्शन के साथ जहाँ शुभ राग अर्थात् पुण्य परिणाम के विषय सच्चे देव, शास्त्र तथा गुरु होते हैं, उसे ही व्यवहार सम्यग्दर्शन कहते हैं। अत: दोनों सम्यग्दर्शन एक साथ ही उत्पन्न होते हैं। चौथे गुणस्थान से ही तीर्थंकर नामकर्म का बंध प्रारंभ होता है। तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कार्य कोई जीव निश्चय सम्यग्दर्शन के अभाव में कैसे कर सकता है ? - साधक के जीवन में व्यवहार (व्यवहाराभास) के साथ निश्चय हो भी सकता है और नहीं भी हो ऐसा भी सम्भव है, पर निश्चय के साथ साधक को व्यवहार अर्थात् यथार्थ व्यवहार तो नियम से होता ही है; ऐसा ही वस्तुस्वरूप सर्वज्ञ भगवान के प्रतिपादित आगम में वर्णित है। रहस्यपूर्ण चिट्ठी में - मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ क्रमांक ३४४ पर लिखा है - चौथे गुणस्थान में सिद्ध समान क्षायिक सम्यग्दर्शन हो जाता है। अतः आगमानुसार सर्व कथन यथार्थ जानना चाहिए। चौथे गुणस्थान में मात्र एक कषाय चौकड़ी का ही अभाव है। उस कारण आंशिक वीतरागता भी है; लेकिन न तो दो कषाय चौकड़ी का अभाव है और न अणुव्रतों का ग्रहणरूप राग भाव अर्थात् पुण्य परिणाम है । अत: चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव के अविरति है । अविरति का स्पष्टीकरण - पंचेंद्रिय और मन के विषयों में प्रवृत्ति और षट्काय जीवों की हिंसा से अविरति - ये अविरति के बारह भेद हैं। उपर्युक्त अविरति का किंचित् भी त्याग इन जीवों को नहीं होता; परन्तु अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान १०९ अविरति में प्रवृत्ति हेयबुद्धि से रहती है तथा आगम अनुसार सदाचार तो अवश्य होता ही है। स्पर्शनादि पाँच इंद्रियों के विषय स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दों में प्रवृत्त होना तथा यश, प्रसिद्धि आदि पापरूप विकल्पों में मन से प्रवृत्ति करना; इसे इंद्रियों और मन के विषयों में प्रवृत्ति कहते हैं। यह पाँच प्रकार की इंद्रियों और मन से संबंधित छह भेदरूप अविरति हो गयी । अविरत सम्यग्दृष्टि के जीवन में इसप्रकार छह प्रकार की अविरति तो पूर्वसंस्कारवश हेयबुद्धि से रहती ही है। - पृथ्वीकायिक, जलकायिक, तेजकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों को पाँच स्थावर काय कहते हैं अर्थात् एकेंद्रिय जीवों को स्थावर कहते हैं। द्विइंद्रियादि से लेकर संज्ञी पंचेंद्रिय पर्यंत के सर्व जीवों को त्रस कहते हैं। पाँच स्थावरकाय और एक त्रसकाय इसप्रकार षट्काय जीव हैं। सम्यग्दृष्टि जीव इन छह काय जीवों की हिंसा को न चाहते हुए भी उनकी हिंसा से पूर्व संस्कारवश एवं अपनी कमजोरी के कारण विरत नहीं है। इसतरह सम्यग्दृष्टि जीव इन्द्रिय असंयम और प्राणी असंयम के कारण अविरत है। इस अविरति में अप्रत्याख्यानावरणकषाय कर्म का उदय भी निमित्तरूप रहता है। देखो परिणामों की विचित्रता ! सम्यग्दर्शन हो गया है, बीच-बीच में यथायोग्य कालावधि व्यतीत होने पर आत्मानुभव भी होता है। गृहीत तथा अगृहीत मिथ्यात्व का अभाव तो हो ही गया है। अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी के अनुदयपूर्वक आंशिक वीतरागता प्रगट हो गयी है । जीवन अन्याय, अनीति और अभक्ष्य से रहित है। अनंत संसार को सांत / सीमित किया है; तथापि बारह प्रकार की अविरति होते हुए भी मोक्ष की साधना करनेवाला साधक के पुरुषार्थ की कमी से यह जीव इंद्रियसंयम और प्राणीसंयम के अभाव के कारण अविरत ही है। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २६ में अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार भी दी है सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो वयादु खइयो य । बिदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ॥

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