Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 92
________________ १८२ गुणस्थान विवेचन ११. जीव के प्रति समय में होनेवाले परिणामों को निमित्त कर कर्मों में अपनी-अपनी योग्यता से - १. प्रकृतिबंध भिन्न-भिन्न ही होता है। २. प्रदेशबंध प्रत्येक कर्म का अलग-अलग होता है ३. स्थितिबंध भी नियम से भिन्न-भिन्न ही और ४. अनुभाग बंध भी अलग-अलग ही होता है। चारित्र अपेक्षा विचार - ____ अपूर्वकरण गुणस्थान में उपशमक को औपशमिक चारित्र और क्षपक को क्षायिक चारित्र होता है। वह इसप्रकार - यद्यपिअपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनिराज ने किसी भी चारित्रमोहनीय कर्म का उपशमन या क्षय नहीं किया है; तथापि उपशमनशक्ति से समन्वित अपूर्वकरण श्रमण के औपशमिक चारित्रभाव के अस्तित्त्व को मानने में कोई विरोध नहीं। (विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखिए-धवला पुस्तक ५, पृष्ठ क्र. २०५ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४; गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा २० की टीका एवं भावदीपिका पृष्ठ २२६-२३४) ७६. प्रश्न : उपशम तथा क्षपकश्रेणी के आरोहक (चढ़नेवाले) को औपशमिक और क्षायिकचारित्र क्यों कहा? जबकि यह कार्य तो उपशांत मोह और क्षीणमोह गुणस्थान में होता है। उत्तर : आपका कहना सही है। उपशांत मोह गुणस्थान में पूर्ण औपशमिक चारित्र होता है और क्षीणमोह गुणस्थान में पूर्ण क्षायिक चारित्र होता है; क्योंकि वहीं चारित्रमोहनीय कर्म का पूर्ण उपशम या क्षय होता है। यहाँ जो अभी कहा है, यह कथन परमसत्य होने पर भी आठवें गुणस्थान के प्रथम समय में औपशमिक चारित्र और क्षायिकचारित्र आगम में उपचार से कहा है। इस उपचार कथन का कारण भी निम्नप्रकार है - जो महामुनीश्वर उपशम अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय में प्रवेश कर चुके हैं, वे नियम से (यदि आठवें से ग्यारहवें गुणस्थान पर्यंत बीच में मरण न हो तो) क्रमपूर्वक तीन ही अंतर्मुहूर्तरूप गुणस्थानों में उत्तरोत्तर शुद्धि की वृद्धि करते हुए उपशांतमोही हो जाते हैं; इसलिए अपूर्वकरण के प्रथम समय में ही औपशमिक चारित्र है; ऐसा आगम में कहा है। क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती महामुनीश्वर के पास तो उस उपशमक से भी अधिक पुरुषार्थ है; क्योंकि क्षपक को तो मरण होने का अपूर्वकरण गुणस्थान १८३ भी अपवाद नहीं है। क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती महामुनिराज आठवें के प्रथम समय से वे मात्र यथायोग्य तीन अंतर्मुहूर्त के बाद निश्चित ही क्षायिक चारित्रवंत हो जाते हैं। इसकारण अपूर्वकरण गुणस्थान के प्रथम समय से ही क्षायिक चारित्र उपचार से कहने में कुछ भी आपत्ति नहीं है। वास्तविकरूप से सोचा जाय तो जैसे छठवें-सातवें गुणस्थान में क्षायोपशमिक चारित्र घटित होता है, वैसे ही दसवें सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत भी क्षायोपशमिक चारित्र ही घटित होता है। काल अपेक्षा विचार - जघन्यकाल - यदि कोई मुनीश्वर उपशमक अपूर्वकरण गुणस्थान में कम से कम काल रहेंगे तो मात्र एक ही समय रह सकते हैं। जैसे - कोई महामुनिराज उपशांतमोह गुणस्थान से उतरते समय नीचे अपूर्वकरण गुणस्थान में मात्र एक समय ही रह सके और उन महामुनिराज के मनुष्यायु का क्षय हो गया, तो मरण की अपेक्षा अपूर्वकरण गुणस्थान का जघन्य काल एक समय घटित होता है। ७७. प्रश्न : आपने यह कथन क्षपक अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती मुनिराज के ऊपर क्यों घटित नहीं किया ? उत्तर : भाई ! क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ मुनिराज का मरण होता ही नहीं, यह अकाट्य नियम है; क्योंकि वे अप्रतिहत पुरुषार्थ के बल से कर्मों का उत्तरोत्तर क्षय करते हुए क्षपकश्रेणी पर आरोहण कर रहे हैं और शीघ्र पूर्ण वीतरागता को प्राप्त करेंगे। अतः क्षपक मुनिराज के लिए मरण की अपेक्षा जघन्य एक समय नहीं घटता; इसलिए नहीं घटाया। ७८. प्रश्न : आठवें उपशमक अपूर्वकरण में आनेवाले सातिशय अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती मुनिराज को क्यों नहीं लिया ? उत्तर : उपशमश्रेणी चढ़नेवाले मुनिराज आठवें गुणस्थान के पहले भाग में मरते ही नहीं हैं - ऐसा कथन आगम में आया है। अतः आठवें उपशमक अपूर्वकरणवाले मुनिराज को नहीं लिया।

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