Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 103
________________ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान २०५ २०४ गुणस्थान विवेचन है" ऐसा बताने में अनुकम्पावान आचार्य महाराज किस रहस्य की बात कहना चाहते हैं, इस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। ९२. प्रश्न : इसमें अति गंभीर सोच-विचार की क्या जरूरत है ? सोच-विचार के लिए अवकाश ही कहाँ है ? स्पष्ट शब्दों में आचार्यों ने शास्त्र में बताया है कि - "दर्शनमोहनीय कर्म बलवान है।" उसे शत प्रतिशत मान लेना ही हमारा परमकर्त्तव्य है। बस ! बात समाप्त हो ही गयी। फिर बाल की खाल निकालने में क्या लाभ है ? उत्तर : दर्शनमोहनीय कर्म को बलवान बताने का कथन व्यवहार-नय का है; इसका अर्थ दर्शनमोहनीय कर्म बलवान नहीं है; ऐसा समझ लेना चाहिए। शास्त्र के अर्थ करने की सच्ची पद्धति यही है। इसी विषय को मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ क्रमांक २५० तथा २५१ पर निम्नानुसार कहा है - व्यवहारनय से जो निरूपण किया हो, उसे असत्यार्थ मानकर उसका श्रद्धान छोड़ना। ....... व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्य को और उनके भावों को और कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है; सो ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व होता है; इसलिए उसका त्याग करना। ___ व्यवहारनय की मुख्यता लिये व्याख्यान है, उसे ऐसे है नहीं, निमित्तादि की अपेक्षा उपचार किया है - ऐसा जानना । कर्म को बलवान बताकर जीव को अधिक बलवान होने की प्रेरणा देने का आचार्यों का भाव है; न कि जीव को पुरुषार्थहीन बनाने का। जैसे - लोक में अपनी सेना को युद्ध की तैयारी करने का उत्साह दिलाना हो तो सेनापति या राजा शत्रु के शौर्य की जानकारी देता है; वह शत्रु से भयभीत होने के लिये नहीं, अपनी शक्ति बढ़ाने के लिये; वैसे ही यहाँ कर्मों के संबंध में समझना चाहिए। अनंत संसार का कारण मिथ्यादर्शन है और मिथ्यात्व कर्म की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर की है, जो सर्व कर्मों की अपेक्षा भी बहुत अधिक है। अनादिकाल से आज तक और भविष्य में भी विश्व में अनंत जीव अनंत दुःख भोगते आ रहे हैं और भोगेंगे; यह सब मिथ्यात्व का ही प्रताप है। संसार के सर्व दुःखों का मूल बीज मिथ्यात्व ही है। तीन सौ तिरेसठ विपरीत मतों के प्रचार-प्रसार का हेतु मिथ्यात्व ही है; इस अपेक्षा से दर्शनमोह महा बलवान है। मिथ्यात्व का नाश होते ही अनंत संसार सान्त/मर्यादित होता है और अपुनर्भव/मुक्ति के लिए मंगल प्रस्थान हो जाता है। ज्ञान तथा चारित्र सम्यग्दर्शन के ही अनुगामी हैं; इस अपेक्षा को सुरक्षित रखते हुए यहाँ चर्चा चल रही है।। ९३. प्रश्न : दर्शनमोह तथा चारित्रमोह - इन दोनों में से पहले उदयनाश किसका होता है ? उत्तर : मिथ्यात्व का नाश अनंत पुरुषार्थ से होता है और सबसे पहले उदयनाश भी मिथ्यात्व का ही होता है। सम्यक्त्व की अपेक्षा चारित्र अर्थात् आत्मस्थिरता का पुरुषार्थ अनंतगुणा अधिक है। यद्यपि चारित्रमोहनीय का उदयनाश मिथ्यात्व के उदयनाश के साथ ही प्रारम्भ हो जाता है; परन्तु पूर्ण उदयनाश और सत्त्वनाश दसवें गुणस्थान के अंतिम समय में ही होता है; यहाँ यह विवक्षा है। वास्तव में चौथे, पाँचवें आदि आगे के प्रत्येक गुणस्थान को प्राप्त करने का पुरुषार्थ भी उत्तरोत्तर अनंत-अनंतगुणा है। भले ही श्रद्धा चौथे गुणस्थान में क्षायिक हो जाय तो भी चारित्र में उससे भी अनंतगुणा पुरुषार्थ आवश्यक है। सम्यक्त्व में प्रतीति का पुरुषार्थ और चारित्र में स्थिरता/रमणता का पुरुषार्थ होता है।। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६० में सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - अणुलोहं वेदंतो, जीवो उवसामगो व खवगो वा। सो सुहमसांपराओ, जहरखादेणूणओ किंचि॥

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