Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 125
________________ २४९ २४८ गुणस्थान विवेचन १११. प्रश्न : अयोगकेवली को सकलपरमात्मा कहने में दोष आता है क्या ? उत्तर : कुछ दोष नहीं आता; क्योंकि अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा प्रत्यक्ष में शरीरसहित हैं; अतः सकल परमात्मा ही हैं। 'कल' शब्द का अर्थ शरीर है। स = सहित, स + कल = सकल, सकल = शरीर सहित। इस गुणस्थान में चारों अघाति कर्मों में से ८५ कर्मों की सत्ता है। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - क्षायिक सम्यक्त्व ही यहाँ भी परमावगाढ सम्यक्त्वरूप कहलाता है। तेरहवें गुणस्थानवत् यहाँ भी समझ लेना चाहिए। चारित्र अपेक्षा विचार - परमयथाख्यात चारित्र, तेरहवें गुणस्थानवत् । काल अपेक्षा विचार - पाँच ह्रस्व स्वरों (अ, इ, उ, ऋ, लु) का उच्चारण काल पर्यंत अर्थात् अंतर्मुहूर्त काल है। यहाँ काल के जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम भेद नहीं हैं। चौदह गुणस्थानों में से यह अयोगकेवली गुणस्थान ही एकमेव ऐसा गुणस्थान है, जो अपने अंतर्मुहूर्त काल का यथार्थ ज्ञान कराने में पूर्ण समर्थ है। अन्य गुणस्थानों के अंतर्मुहूर्त काल के लिए हमें केवलज्ञानगम्य यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल ऐसा कहना अनिवार्य हो गया है; क्योंकि अंतर्मुहूर्त के यथार्थ निर्णय के लिए चौदहवें गुणस्थान के समान कोई मापदण्ड हमारे पास नहीं है। गमनागमन अपेक्षा विचार - गमन - चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान से सिद्धदशा में ही ऊर्ध्वगमन होता है; क्योंकि अब किसी भी प्रकार कमी नहीं रही, जिसकी पूर्ति की जाय। आगमन - इस चौदहवें गुणस्थान में आगमन मात्र सयोगकेवली गुणस्थान से ही होता है; अन्य किसी भी गणस्थान से नहीं। विशेष अपेक्षा विचार - १. अयोगकेवली गुणस्थान के उपान्त्य समय में बहत्तर प्रकृतियों अयोगकेवली गुणस्थान की निर्जरा अर्थात् क्षय हो जाता है और अंतिम समय में शेष तेरह प्रकतियों का भी नाश हो जाता है। इन कर्मों के नाश के समय ही संसार अवस्था का व्यय और सादि अनंत काल के लिए सिद्ध दशा का उत्पाद भी हो जाता है। २. योग के अभाव के कारण अयोगकेवली को ईर्यापथास्रव भी नहीं होता, जो ग्यारहवें-बारहवें तथा तेरहवें में भी होता था। ३. मुनिराज के चौरासी लाख उत्तर गुणों की तथा शील सम्बन्धी अठारह हजार भेदों की पूर्णता यहाँ अयोगकेवली अवस्था में होती है। ११२. प्रश्न - श्रावक के भी उत्तरगुण और शील होते हैं क्या ? उत्तर :- हाँ, जरूर होते हैं। अहिंसादि पाँच अणुव्रत, दिग्व्रतादि तीन गुणव्रत और सामायिक आदि चार शिक्षाव्रत - कुल मिलाकर ये बारह व्रत होते हैं। उन्हें ही श्रावक के उत्तर गुण कहते हैं । गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत को सप्तशील भी कहते हैं। ४. पूर्ण संवर तथा पूर्ण निर्जरा भी अयोगकेवली को ही होती है। ५. यहाँ प्रयुक्त अयोग शब्द आदि दीपक है। स्वयं अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा तो अयोगी हैं ही और यहाँ से उपरिम सिद्ध दशा अयोगरूप और अशरीरी ही है। धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १९३ से २००) । अब आचार्य पुष्पदंत भट्टारक अन्तिम गुणस्थान के स्वरूप के निरूपण करने के लिये, अर्थरूप से अरहंत परमेष्ठी के मुख से निकले हए, गणधर देव के द्वारा गूंथे गये शब्द-रचनावाले, प्रवाहरूप से कभी भी नाश को नहीं प्राप्त होनेवाले और संपूर्ण दोषों से रहित होने के कारण निर्दोष ऐसे आगे के सूत्र को कहते हैं - सामान्य से अयोगकेवली जीव हैं।।२०।। जिसके योग विद्यमान नहीं है, उसे अयोग कहते हैं। जिसके केवलज्ञान पाया जाता है, उसे केवली कहते हैं। जो योग रहित होते हुए केवली होता है, उसे अयोगकेवली कहते हैं। ३४. शंका - पूर्वसूत्र से केवली पद की अनुवृत्ति होने पर इस सूत्र में फिर से केवली पद का ग्रहण नहीं करना चाहिये?

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