Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 106
________________ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान २११ २१० गुणस्थान विवेचन विशेष अपेक्षा विचार - १. अनंतगुणी विशुद्धि आदि आवश्यक कार्य अष्टम गुणस्थानवत इस सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में भी सतत होते ही रहते हैं। २. दसवें गुणस्थान के नाम के अनुसार ही दसवें में सूक्ष्मलोभ कषाय का उदय रहता है और उदय के निमित्त से अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मलोभ परिणाम भी होता रहता है; तथापि सूक्ष्मलोभरूपचारित्रमोहनीय विभाव परिणाम से चारित्र मोहनीय क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा हास्यादि ९ नोकषायों में से किसी का भी नवीन कर्मबंध नहीं होता । ९६. प्रश्न : सूक्ष्मलोभकषाय नामक द्रव्यकर्म के उदय से सूक्ष्मलोभरूप परिणाम भी मुनिराज के होता है। ऐसी स्थिति में कम से कम सूक्ष्मलोभ का तो बंध होना ही चाहिए न ? आप नवीन कर्मबंध न होने की बात क्यों और किस आधार से करते हो? उत्तर : लोभरूप कषाय परिणाम अत्यंत सूक्ष्म है, जघन्य है; इसलिए चारित्रमोहनीय कर्म का बंध नहीं होता। सूक्ष्म लोभकर्म के उदयानुसार अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्म लोभ का जघन्य परिणाम होता है। जब मोह परिणाम जघन्य होता है तब नवीन मोहकर्म का बंध नहीं होता; ऐसा कर्मबंध का एक अटल नियम है। यदि जघन्य भावरूप सूक्ष्म लोभ होने पर भी नवीन सूक्ष्म लोभ कर्म का नवीन बंध भी होता रहेगा तो कभी जीव को मुक्ति होगी ही नहीं। अगर सूक्ष्म लोभ से भी सूक्ष्म लोभ का बंध मानेंगे तो सूक्ष्म लोभ का उदय आता रहेगा और सूक्ष्म लोभ का बंध होता रहेगा तो जीव को कभी मुक्ति मिलेगी ही नहीं। इस अति महत्वपूर्ण विषय को पंचास्तिकाय गाथा १०३ की टीका में स्पष्ट किया है। “जो कर्मबंध की परंपरा का प्रवर्तन कराने वाली रागद्वेष परिणति को छोड़ता है, वह पुरुष, वास्तव में जिसका स्नेह (रागादिरूप चिकनाहट) जीर्ण होता है, ऐसा जघन्य स्नेह (स्पर्शगुण की पर्यायरूप चिकनाहट । जिसप्रकार जघन्य चिकनाहट के सन्मुख वर्तता हुआ परमाणु भावी बंध से पराङ्मुख है; उसी प्रकार जिसके रागादि जीर्ण हो जाते हैं ऐसा पुरुष भावी बंध से पराङ्मुख है।) गुण के सन्मुख वर्तते हुए परमाणु की भाँति भावी बंध से पराङ्मुख वर्तता हुआ, पूर्व बंध से छूटता हुआ, अग्नितप्त जल की दुःस्थिति समान जो दुःख उससे परिमुक्त होता है।” (देखिए तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५ का सूत्र क्रमांक ३४) इसलिए दसवेंगुणस्थान में अत्यन्त सूक्ष्मरूपलोभ परिणाम होने से किसी भी प्रकार का नया कषाय व नोकषाय मोहकर्म का कर्मबंध नहीं होता है। ३. सूक्ष्मलोभ परिणाम से मोहकर्म का बंध तो नहीं होता है; तथापि इसी अबुद्धिपूर्वक सूक्ष्मलोभ परिणाम से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय - इन तीनों घाति कर्मों तथा सातावेदनीय आदि का अंतर्मुहर्त प्रमाण स्थिति का अल्प अनुभाग सहित बंध तो होता ही है। देखो, परिणाम और कर्म बंध की विचित्रता ! क्षपक - दसवें गुणस्थानवर्ती यही महामुनिराज मात्र एक ही यथायोग्य अंतर्मुहूर्त काल व्यतीत होते ही बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान को नियम से प्राप्त करते हैं। बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ही इन तीनों घातिकर्मों का क्षय भी करनेवाले हैं; क्योंकि वे अंतर्मुहूर्त में ही सर्वज्ञ भगवान होनेवाले हैं। तथापि जबतक दसवें गुणस्थान में हैं तबतक तीनों घाति कर्मों का बंध होता ही रहता है। बंध होने का यह अंतिम गुणस्थान है। क्षीणमोह गुणस्थान तथा इससे आगे के गुणस्थानों में बंध नहीं होता है; क्योंकि बंध का कारण मोहभाव का पूर्ण रीति से नाश हो गया है। ४. यहाँ सांपराय शब्द अंतदीपक है। अतः यह सूक्ष्मसांपराय नामक दसवें गुणस्थानवाले सांपराय अर्थात् सूक्ष्म कषाय सहित ही हैं। मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से कषाय सहित हैं। इसे समझने के लिये प्रथम गुणस्थान से सर्व दसों गुणस्थानों को निम्नानुसार लिख सकते हैं। जैसे - सांपराय मिथ्यात्व, सांपराय सासादनसम्यक्त्व, सांपराय मिश्र, सांपराय अविरतसम्यक्त्व आदि। धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १८८ से १८९) सूक्ष्मसांपरायप्रविष्टशुद्धिसंयतों में उपशमक और क्षपक दोनों हैं।।१८॥

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