Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 119
________________ २३७ २३६ गुणस्थान विवेचन आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ६३-६४ में सयोगकेवली गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - केवलणाण दिवायरकिरणकलावप्पणासियण्णाणो। णवकेवललद्धग्गम सुजणिय-परमप्पववएसो।। असहायणाणदंसणसहिओ, इदि केवली हु जोगेण। जुत्तोत्ति सजोगजिणो, अणाइणिहणारिसे उत्तो।। घाति चतुष्क के क्षय के काल में औदयिक अज्ञान नाशक तथा असहाय केवलज्ञानादि नव लब्धिसहित होने पर परमात्म संज्ञा को प्राप्त जीव की योगसहित वीतराग दशा को सयोगकेवली गुणस्थान कहते हैं। ___घाति चतुष्क अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय कर्मों का क्षय होते ही उसीसमय केवलज्ञानादि नव लब्धियाँ उत्पन्न होती हैं। ये दोनों कार्य एक ही समय में होते हैं। इस ही एक समय के घटना/ कार्य को “चार घाति कर्मों के क्षय के निमित्त से केवलज्ञानादि होते हैं' - ऐसा निमित्त-नैमित्तिक का कथन शास्त्र में मिलता है। इस विषय को आचार्यश्री उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र के १०वें अध्याय में प्रथम सूत्र द्वारा स्पष्ट किया है - मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणान्तराय-क्षयाच्च केवलम् । कर्मों के नाश होने से केवलज्ञानादि की उत्पत्ति नहीं होती। कोई स्वयं मरनेवाला अन्य को कैसे जन्म दे सकता है ? कर्मों का नाश केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर सकता। केवलज्ञान की पर्याय तो जीवद्रव्य के ज्ञान गुण में से प्रगट होती है। दसवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ही मोहकर्म का संपूर्ण क्षय हो गया है। बारहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरणादि तीनों घाति कर्मों का नाश/क्षय भी हो गया है। इनके अभावरूप निमित्त को मुख्य करके निमित्त का ज्ञान कराने के लिए मोह एवं ज्ञानावरणादि तीनों घाति कर्मों के क्षय से केवलज्ञान हुआ; ऐसा निमित्त-नैमित्तिक संबंध देखकर व्यवहारनय से, उपचार से घाति कर्मों के नाश से केवलज्ञान होता है; ऐसा आचार्यश्री कथन करते हैं। सयोगकेवली गुणस्थान अज्ञान दो प्रकार का होता है - १. मिथ्या श्रद्धा के निमित्त से संशयादि विपरीतता लिये हुए जो व्यक्त ज्ञान होता है, उसे अज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान कहते हैं। यह अज्ञान प्रथम गुणस्थान से लेकर दूसरे सासादनसम्यक्त्व गुणस्थान पर्यंत होता है। (तीसरे गुणस्थान में श्रद्धा के अनुसार ज्ञान भी मिश्र/सम्यग्मिथ्यारूप रहता है।) २. ज्ञानावरण कर्म के उदय से जो ज्ञान का पर्याय में अभाव रहता है, उसे भी अज्ञान कहते हैं। इस दूसरे प्रकार के अज्ञान का नाम औदयिक अज्ञान है। यह पहले गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय पर्यंत रहता है। औदयिक अज्ञान का नाश केवलज्ञान होने पर ही होता है। अतः परिभाषा में औदयिक अज्ञान नाशक विशेषण केवलज्ञान के लिये दिया है। केवलज्ञान का दूसरा विशेषण “असहाय' दिया है। असहाय शब्द के दो अर्थ होते हैं। प्रथम अर्थ - दीन, हीन, जिसका कोई मदद करनेवाला या सहायक नहीं है; तथापि जो दूसरों से सहयोग अर्थात् मदद की अतिशय हार्दिक परिणामों से अपेक्षा रखता है; उसे असहाय कहते हैं। यह दीनता का द्योतक है। दूसरा अर्थ - जिसे किसी से भी मदद या सहाय की आवश्यकता ही नहीं है; जो स्वयं अपने सब कार्यों के लिये समर्थ, स्वसहाय, स्वाधीन तथा परिपूर्ण है, उसे भी असहाय कहते हैं। यह स्वयंपूर्णता का द्योतक है। प्रस्तुत प्रकरण में केवलज्ञान के लिये दूसरा अर्थ ही लागू होता है, पहला नहीं। केवलज्ञान के लिये न शरीर की आवश्यकता है, न इंद्रियों की और न बाह्य प्रकाश आदि निमित्तों की। इतना ही नहीं केवलज्ञान को बाह्य ज्ञेय (ज्ञान जिस वस्तु को जानता है, उसे ज्ञेय कहते हैं) वस्तुओं की साक्षात् उपस्थिति भी आवश्यक नहीं है; क्योंकि केवलज्ञान तो जो ज्ञेय पदार्थ वर्तमान में छद्मस्थ को साक्षात् प्रत्यक्ष नहीं, (जो ज्ञेय सूक्ष्म, अंतरित और दूर हैं) ऐसे

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