Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 58
________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान ११५ ११४ गुणस्थान विवेचन आचार्य कुंदकुंद ने इसे ही 'सम्यक्त्वाचरण चारित्र' नाम दिया है। चौथे गुणस्थान में यदि आंशिक वीतरागता प्रगट हो गयी है तो चारित्र तो है ही। सम्यग्दर्शन का अविनाभावी या सहचारी होने से स्वरूपाचरण चारित्र को ही सम्यक्त्वाचरण चारित्र नाम दिया गया है। सिद्धों को अनंत अतीन्द्रिय सुख प्रगट हो जाता है। उनके अनंत सख का अनंतवें भागरूप सच्चा सुख सम्यग्दष्टि को भी प्रगट हो गया है: क्योंकि उसने अनंत संसार को आत्मस्वभाव के यथार्थ श्रद्धान से सीमित कर दिया है। करणानुयोग की अपेक्षा से भी अनंतानुबंधी चारित्रमोहनीय कर्म का अनुदयरूप अभाव होने से अर्थात् प्रतिबंधक कारण का अभाव होने से वीतरागता की अभिव्यक्तिरूप चारित्र सिद्ध होता ही है। सम्यक्त्वाचरणचारित्र शब्द का प्रयोग आचार्य श्री कुंदकुंद ने अष्टपाहुड ग्रंथ के चारित्र पाहड की गाथा ८ व ९ में किया है। स्वरूपाचरण चारित्र शब्द का प्रयोग - धवला पुस्तक एक पृष्ट १६५ में और पण्डित सदासुखदासजी कृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में अनेक जगह आया है। गुरु गोपालदासजी बरैया ने जैन सिद्धान्त प्रवेशिका के क्रमांक २२२ प्रश्न के उत्तर में स्वरूपाचरण चारित्र दिया है एवं प्रश्न २२३ के उत्तर में स्वरूपाचरण चारित्र की परिभाषा बताई है। काल अपेक्षा विचार चौथे गुणस्थान के इस प्रकरण में ही पहले सम्यक्त्व के काल का वर्णन किया है और अब यहाँ अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान के काल विषयक स्पष्टीकरण किया जाता है। जघन्य काल - चौथे गुणस्थान का जघन्य काल अंतर्महर्त है। चारों गतियों में जीव सम्यक्त्व की प्राप्ति कर सकता है। एक भव से अन्य भव में सम्यक्त्व लेकर जा भी सकता है। यदि कोई जीव एकदेश संयम या सर्वदेश संयम के बिना अर्थात् पाँचवें अथवा छठवे-सातवें गुणस्थान के बिना मात्र सम्यग्दर्शन सहित चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में कम से कम काल रहे तो वह मात्र एक अंतर्मुहूर्त ही रह सकता है। एक अंतर्मुहूर्त से कम अर्थात् एक समय, दो, तीन, चार समय आदि अथवा एक आवली काल पर्यंत नहीं रह सकता है। यह अविरतसम्यक्त्व चतुर्थ गुणस्थानवी जीव के जघन्य काल का कथन हुआ। उत्कृष्ट काल - साधिक तेतीस सागर है। अनुत्तरवासी देवों में एक समय कम तेतीस सागर पर्यंत अविरतसम्यक्त्व अर्थात् चौथा गुणस्थान रहता है। अनुत्तरवासी देव स्वर्ग से च्युत होकर पूर्वकोटि वर्ष की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। वहाँ पर वे अंतर्मुहूर्त प्रमाण आयु के शेष रह जाने तक अविरतसम्यग्दृष्टि होकर रहे तो एक समय कम तेतीस सागर और अंतर्मुहूर्त कम कोटि पूर्व काल पर्यंत चौथे गुणस्थान का उत्कृष्ट काल होता है। (धवला पुस्तक ४, पृष्ठ : ३४७-३४८) इस अपेक्षा अविरतसम्यक्त्व का उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर होता है। सातवें नरक में नारकियों की अपेक्षा छह अंतर्मुहूर्त कम तेतीस सागर काल अविरतसम्यक्त्व चौथे गुणस्थान का है। धवला में इसका स्पष्टीकरण इसप्रकार है - मोह कर्म की अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता रखनेवाला एक तिर्यंच अथवा मनुष्य मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथ्वी में उत्पन्न हुआ। वह छहों पर्याप्तियों से पर्याप्त होकर (१) विश्राम लेता हुआ (२) विशुद्ध होकर (३) वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। अंतर्मुहूर्त काल प्रमाण आयुकर्म की स्थिति के अवशेष रहने पर पुन: मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। (४) वहाँ आगामी भव की आयु को बांधकर (५) अंतर्मुहर्त काल विश्राम लेकर (६) निकला। इसप्रकार छह अंतर्मुहर्त कम ३३ सागर काल पर्यंत नरकगति में अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान रहता है। (धवला पुस्तक ४, पृष्ठ ३५९) मनुष्य तथा तिर्यंच गति की अपेक्षा अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान का काल अनुक्रम से साधिक तीन पल्य एवं तीन पल्य है। (सर्वार्थसिद्धि पृष्ठ ४१, ४२) मध्यम काल - एक अंतर्मुहूर्त से लेकर साधिक तेतीस सागर काल के बीच में जितने भी भेद हो सकते हैं, वे सर्व अविरतसम्यक्त्व के चौथे गुणस्थान के मध्यम काल के प्रकार समझना चाहिए।

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