Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 63
________________ १२४ गुणस्थान विवेचन है। आत्मानुभव के लिए अनंत सर्वज्ञ भगवंतों द्वारा कथित देवशास्त्र-गुरु, षड्द्रव्य और सप्ततत्त्वों के भेदज्ञानपूर्वक यथार्थ ज्ञान और श्रद्धान की भी अत्यन्त आवश्यकता है। सात तत्त्वों में भी “मैं भगवान आत्मा अनादि-अनंत, सहज, शुद्ध स्वरूपी ही हूँ," ऐसी मान्यता / श्रद्धा / प्रतीति ही सम्यग्दर्शन है। ३. सम्यक्त्व प्राप्ति के कारण ही जीव अंतरात्मा संज्ञा को प्राप्त होता है। चौथे गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव अंत ही हैं। इनमें भी चौथे गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य अंतरात्मा हैं। पाँचवेंछठवें गुणस्थानवर्ती जीव मध्यम अन्तरात्मा हैं और सातवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज उत्तम अंतरात्मा हैं। ४. 'अविरतसम्यक्त्व' इस नाम में जो 'अविरत' शब्द है, वह अंत दीपक है अर्थात् प्रथम गुणस्थान से लेकर चौथे अविरत गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव अविरत ही हैं। जैसे अविरत मिथ्यात्व, अविरत सासादनसम्यक्त्व और अविरत सम्यग्मिथ्यात्व; क्योंकि मिथ्यात्व से लेकर चौथे गुणस्थानपर्यंत के सर्व जीव सामान्यतया अविरत ही हैं; तथापि प्रत्येक की अविरति में महान अन्तर है। ५. मिथ्यात्व से रहित होने के कारण अविरत सम्यग्दृष्टि को श्रद्धा की अपेक्षा 'दृष्टिमुक्त' कहते हैं। मुक्ति के अनेक भेद निम्नप्रकार समझ सकते हैं १) जिस जीव की श्रद्धा यथार्थ हो गयी, उसे दृष्टिमुक्त कहते हैं। २) बारह प्रकार की अविरति से अतीत होने के कारण छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज अविरतिमुक्त हैं। ३) पंद्रह प्रमादों से अतीत होने के कारण अप्रमत्तसंयत आदि आगे के चार गुणस्थानवर्ती जीवों को प्रमादमुक्त कहते हैं। ४) उपशांत मोह व क्षीणमोह गुणस्थानवर्ती सर्व जीवों को मोहमुक्त कहना योग्य है। ५) सयोग - अयोग केवलियों को जीवनमुक्त कहना स्वाभाविक है; इन्हें ईषत् सिद्ध भी कहते हैं। अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान १२५ ६) गुणस्थानातीत जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित होने के कारण सिद्ध जीवों को 'देहमुक्त' / साक्षात् मुक्त कहते हैं। अब किसी से मुक्त होना उन्हें शेष नहीं रहा । मोक्षमार्ग अर्थात् मुक्त होने का प्रारंभ तो सम्यग्दर्शन होने पर चौथे गुणस्थान से होता है। ६. भव्यत्व शक्ति की अभिव्यक्ति का प्रारंभ चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से ही होता है। जो जीव मोक्षमार्ग (रत्नत्रय ) प्रगट करने की शक्ति रखता है, उसे भव्यजीव कहते हैं। चौथे गुणस्थान में मोक्षमार्ग प्रारंभ होता है और सिद्ध अवस्था में भव्यत्व शक्ति का फल प्राप्त होता है। इस अपेक्षा से सिद्ध अवस्था में भव्यत्व शक्ति का अभाव बताया गया है। जैसे - सिद्ध अवस्था की प्राप्ति जीव को नियम से निज शुद्धात्मा के ध्यान से ही होती है, वैसे ही सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति भी नियम से शुद्धात्मा के ध्यान से ही होती है। इसी ध्यान को शुद्धोपयोग कहते हैं। इस विषयक जयसेनाचार्य का कथन अत्यंत स्पष्ट है। समयसार गाथा ३२० की तात्पर्यवृत्ति टीका लिखने के बाद विशेष खुलासा करते हुये वे लिखते हैं "उस ही परिणमन को आगमभाषा से औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्वभावरूप कहा जाता है। और उस ही परिणमन को अध्यात्मभाषा से शुद्धात्माभिमुख परिणाम, शुद्धोपयोग आदि नामों से कहा जाता है। " इससे यह अर्थ सहज ही फलित हो जाता है कि प्रथमोपशम सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व अथवा क्षायिक सम्यक्त्व की प्राप्ति शुद्धोपयोग में ही होती है। आचार्यश्री जयसेन के समयसार के उपर्युक्त एक ही उद्धरण से यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि - चौथे गुणस्थान में शुद्धोपयोग होता ही है। ४७. प्रश्न : सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए शुद्धात्मा के ध्यान को छोड़कर क्या अन्य कोई उपाय भी हो सकता है ? या एक मात्र उपाय शुद्धात्मा का ध्यान ही है ?

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