Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 89
________________ १७७ अपूर्वकरण गुणस्थान अपूर्वकरण नाम का यह आठवाँ गुणस्थान श्रेणी के गुणस्थानों में प्रथम गुणस्थान है। ६९. प्रश्न : श्रेणी किसे कहते हैं ? उत्तर :चारित्रमोहनीय कर्म की (अनंतानुबंधी चतुष्क रहित) २१ प्रकृतियों के उपशम या क्षय के निमित्त से वृद्धिंगत होनेवाले जीव की विशुद्धि को/वीतराग परिणामों को श्रेणी कहते हैं। श्रेणी के दो भेद हैं - उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। ७०. प्रश्न : उपमशश्रेणी और क्षपकश्रेणी की क्या परिभाषा है ? उत्तर : जिसमें चारित्र मोहनीयकर्म के २१ प्रकृतियों के उपशम के साथ विशुद्धि/वीतरागता उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, उसे उपशमश्रेणी कहते हैं। आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और ग्यारहवाँ ये चार गुणस्थान उपशमश्रेणी के हैं। जिसमें चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकतियों के क्षय के साथ वीतरागता/विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है, उसे क्षपकश्रेणी कहते हैं। आठवाँ, नौवाँ, दसवाँ और बारहवाँ ये चार गुणस्थान क्षपकश्रेणी के हैं। ७१. प्रश्न : चारित्रमोहनीय की २१ प्रकृतियों की क्षपणा (क्षय) करनेवाले क्षपक मुनिराज सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान से क्या उपशांत मोह गुणस्थान को लांघकर क्षीणमोही हो जाते हैं ? उत्तर : नहीं, यहाँ लांघकर जाने की बात ही नहीं है। क्षपक मुनिराज चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करते हुए उत्तरोत्तर वीतरागता बढ़ाते हुए उसे पूर्ण करते हैं अर्थात् सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान में शेष सूक्ष्म लोभ कषाय कर्म का भी क्षय करके सीधे क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान में पहुँच जाते हैं। इसलिए उनके मार्ग में उपशांतमोह गुणस्थान के आने का प्रश्न ही नहीं है। क्षय करनेवाले के मार्ग में कर्मों के उपशम के स्थान कैसे आ सकते हैं ? दोनों का स्वरूप एक-दूसरे से भिन्न ही है। अपूर्वकरण गुणस्थान आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५० में अपूर्वकरण गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - अंतोमुहत्त कालं, गमिऊण अधापवत्तकरणं तं। पडिसमयं सुज्झंतो, अपुव्वकरणं सम्मिल्लियइ॥ अधःप्रवृत्तकरण संबंधी अंतर्मुहूर्त काल पूर्ण कर प्रति समय अनंतगुणी शुद्धि को प्राप्त हुए परिणामों को अपूर्वकरण गुणस्थान कहते हैं। इसमें अनुकृष्टि रचना नहीं होती। इस गुणस्थान का पूरा नाम "अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत' है। उपरिम समयवर्ती जीव के परिणाम और निम्न समयवर्ती जीव के परिणामों में समानता का होना, उसे अनुकृष्टि कहते हैं। ऐसी समानता अपूर्वकरण गुणस्थान में नहीं हो सकती; क्योंकि अपूर्वकरण गुणस्थान में जीव के प्रत्येक समय के परिणाम पूर्व समय की अपेक्षा अपूर्वअपूर्व ही होते हैं; अर्थात् यहाँ एक समय के परिणामों की समानता दूसरे समय के परिणामों के साथ कभी हो ही नहीं सकती। भेद अपेक्षा विचार - उपशमक अपूर्वकरण और क्षपक अपूर्वकरण - ऐसे दो भेद हैं। अपूर्वकरणप्रविष्ट शुद्धिसंयत संबंधी स्पष्टीकरण - शब्दार्थ - अ = नहीं, पूर्व = पहले, अपूर्व = अत्यन्त नवीन, करण = परिणाम; अर्थात् पूर्व में कभी भी प्रगट नहीं हुए हों ऐसे अत्यन्त नवीन शुद्ध परिणाम । प्रविष्ट = प्रवेश प्राप्त, शुद्धि = शुद्धोपयोग, संयत = शुद्धात्मस्वरूप में सम्यक्तया लीन । - चारित्रमोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम या क्षय में निमित्त होनेवाले, पूर्व में अप्राप्त, विशिष्ट वृद्धिंगत, शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत है। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार - ___ अपूर्वकरण गुणस्थान में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व इन दोनों सम्यक्त्वों में से मुनिराज को कोई एक सम्यक्त्व रहता है। द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि मुनिराज तो उपशम श्रेणी पर ही आरूढ़ होते हैं

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