Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 69
________________ १३६ विशेष अपेक्षा विचार - १. सर्वार्थसिद्धि आदि एक भवावतारी देवों के सम्यक्त्व, बालब्रह्मचर्यत्व, द्वादशांगज्ञानत्वादि की उपस्थिति में तथा उनके जनसामान्यवत् पंच पाप, स्थूल विषय कषाय, असि-मसि आदि हिंसाजन्य षट्कर्म दिखाई नहीं देने पर भी अंतरंग में एक कषाय चौकड़ी के अभाव में उत्पन्न वीतरागता होने से उन्हें देशसंयम नहीं है; परंतु असंयम ही है और मनुष्य, तिर्यंचों के उपर्युक्त बाह्य प्रवृत्ति दिखाई देने पर भी अंतरंग में सम्यग्दर्शन सहित दो कषाय चौकड़ी के अनुदय में उत्पन्न वीतरागता विद्यमान होने से देशसंयम है। गुणस्थान विवेचन इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि बारह अंग के ज्ञाता सौधर्म इंद्र, लौकांतिक देव अथवा अहमिंद्र देव जिस आत्मानंद का अनुभव करके सुखी जीवन व्यतीती करते हैं; उनसे भी अति अल्पज्ञान के धारक, भूमिका के योग्य बाह्य हिंसादि पाप से आंशिक विरत रहनेवाले देशव्रती मनुष्य-तिर्यंच भी अधिक सुखी जीवन व्यतीत करते हैं। (इस विषयक स्पष्टीकरण के लिए मोक्षमार्ग प्रकाशक का पृष्ठ क्रमांक २३२ देखें और डॉ. हुकमचंदजी भारिल्ल लिखित धर्म के दशलक्षण के 'उत्तम संयम धर्म' का अवलोकन करें।) सुख का सीधा संबंध व्यक्त वीतरागता से है; बाह्य प्रवृत्ति के अनुसार त्याग-ग्रहण से नहीं है। २. स्वयम्भूरमण समुद्र में प्रतिकूल वातावरण में भी शुद्धात्मानुभवरूप सम्यग्दर्शन सहित दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक व्यक्त वीतरागतारूप देशचारित्र होता है। इसकारण असंख्यात तिर्यंच भी अतींद्रिय आनंद का अनुभव करते हुए पंचम गुणस्थानवर्ती हैं। धर्म (वीतरागता) व्यक्त करने के लिए, धर्म की वृद्धि करने के लिए अथवा धर्म की परिपूर्णता के लिए बाह्य अनुकूलता या प्रतिकूलता अकिंचित्कर है, यह विषय यहाँ स्पष्ट समझ में आ जाता है। बाह्य प्रतिकूल परिकर धर्म प्रगट करने के कार्य में कुछ बाधक होता हो तो नरक में किसी भी जीव को सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होनी देशविरत गुणस्थान १३७ चाहिए; लेकिन असंख्यात नारकी सम्यक्त्व की प्राप्ति करते हैं। नव ग्रैवेयक पर्यंत के स्वर्ग के सब देवों को बाह्य अनुकूलता के कारण सम्यग्दर्शन होना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं बन सकता; क्योंकि अनेक देव मिथ्यादृष्टि पाये जाते हैं। उपसर्ग या परिषह में जकड़े हुए साधु की साधुता नष्ट होनी चाहिए और उनको उपसर्ग तथा परिषहजयी बनकर केवली होने का अवसर भी नहीं मिलना चाहिए; तथापि अनेक मुनिराज उपसर्ग तथा परिषहजयी होकर अंतरोन्मुख पुरुषार्थ करते हुए केवली होते हैं और अपनी अतीन्द्रिय अनन्तसुखरूप पर्याय को प्रति समय प्रगट कर ही रहे हैं। धर्म की क्रिया तो आत्मा की अपनी स्वाधीन और स्वतंत्र क्रिया है, उसका बाह्य अन्य द्रव्यों की क्रिया से कुछ भी संबंध नहीं है। ३. यहाँ संयम शब्द आदि दीपक है; क्योंकि इस संयमासंमय गुणस्थान से लेकर उपरि सभी गुणस्थानों में संयम नियम से पाया ही जाता है। संयम + असंयम इन दो शब्दों की संधि से संयमासंयम यह एक शब्द बना है। ४. असंयम शब्द को अंत दीपक समझना चाहिए; क्योंकि पंचम गुणस्थान से लेकर आगे के गुणस्थानों में असंयम होता ही नहीं। इसे समझने के लिए प्रथम चार गुणस्थानों के साथ असंयम शब्द जोड़कर समझना उपयोगी हो जाता है। जैसे मिथ्यात्व असंयम, सासादनसम्यक्त्व असंयम, मिश्र असंयम आदि । - धवला पुस्तक १ का अंश (पृष्ठ १७४ से १७६) "सामान्य से संयतासंयत जीव हैं ।। १३ ।। जो संयत होते हुए भी असंयत होते हैं, उन्हें संयतासंयत कहते हैं। १०. शंका - जो संयत होता है वह असंयत नहीं हो सकता है और जो असंयत होता है वह संयत नहीं हो सकता है; क्योंकि संयमभाव और असंयमभाव का परस्पर विरोध है। इसलिये यह गुणस्थान नहीं बनता है। समाधान - विरोध दो प्रकार का है, परस्परपरिहारलक्षण विरोध और सहानवस्था लक्षण विरोध । इनमें से एक द्रव्य के अनन्त गुणों में

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