Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 79
________________ १५६ गुणस्थान विवेचन पुण्य कार्य नियम से संज्वलन कषाय और नौ नोकषायों के यथायोग्य तीव्र उदय में ही होते हैं। इस कारण श्रावक जीवन से भी मुनिजीवन कितना भिन्न प्रकार है, इसका स्वयमेव ज्ञान हो जाता है। जो परिणाम मुनीश्वरों के लिए हेय हैं, उसी परिणाम द्वारा ही श्रावकों का महान उपकार होता है। हमें थोड़ा विचार करना चाहिए कि जब मुनिराज के हेयरूप (शुभ) परिणाम से भी श्रावक का सहज कल्याण होता है तो वास्तविक वीतरागतरूप धर्म से श्रावक का अविनाशी कल्याण क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा। ३. आहारक आदि ऋद्धियों का व्यवहार धर्म-प्रभावना हेतु कदाचित् उपयोग इस सविकल्प अवस्थारूप छठवें प्रमत्तसंयत गुणस्थान में ही होता है; क्योंकि अप्रमत्तादि ऊपर के गुणस्थान निर्विकल्प शुद्धोपयोगरूप ही है। ऋद्धि शब्द का अर्थ है - पुण्योदय से अर्थात् विशुद्धि से प्राप्त कुछ विशिष्ट विकसित शक्ति की उपलब्धि । जिन मुनिराजों को ऋद्धि की प्राप्ति हो गयी है, उनको उन ऋद्धियों का उपयोग करना ही चाहिए, ऐसा कोई नियम नहीं है; क्योंकि मुनिराज ऋद्धियों से अत्यंत निरपेक्ष होते हैं। ४. छठवें गुणस्थान के नाम में प्रयुक्त 'प्रमत्त' शब्द अंतदीपक है; क्योंकि मिथ्यात्व से लेकर प्रमत्तसंयत पर्यंत सर्व जीव नियम से प्रमाद की बहुलतावाले ही होते हैं । इन सभी के साथ 'प्रमत्त' शब्द का प्रयोग भी किया जा सकता है। जैसे- प्रमत्त मिथ्यात्व प्रमत्त सासादनसम्यक्त्व, प्रमत्त मिश्र, प्रमत्त अविरतसम्यक्त्व, प्रमत्त देशविरत; पर भाषाविज्ञान के नियमानुसार संक्षिप्तीकरण के लिए मात्र छठवें गुणस्थान में प्रमत्त शब्द का प्रयोग हुआ है। ६२. प्रश्न : छठवें सातवें गुणस्थान में झूलते हुए प्रचुर स्वसंवेदन का आनंद की गटागट घूंट पीनेवाले सर्व भावलिंगी मुनिराज की व्यक्त प्रमत्तविरत गुणस्थान १५७ वीतरागता (निश्चय धर्म) समान ही होती है या उसमें भी कुछ भेद रहता है ? उत्तर : अट्ठाईस मूलगुणों के पालनरूप बाह्य व्यवहारधर्म तो सर्व मुनिराजों (आचार्य, उपाध्याय, साधु) का समान ही होता है। अंतरंग में निश्चयधर्मरूप तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय से व्यक्त वीतरागता भ सामान्य अपेक्षा से समान ही होती है। (विशेष स्पष्टीकरण पंचाध्यायी अध्याय दूसरा श्लोक ६३९ से ६४३ देखें ।) सूक्ष्म परिणामों की अपेक्षा से विचार किया जाय तो वीतरागता हीन - अधिक भी हो सकती है; क्योंकि इसका निमित्त कारण संज्वलन कषाय चौकड़ी तथा नोकषाय कर्मों का तीव्र अथवा मंद उदय है। इस कारण अनेक वर्षों से दीक्षित मुनिराज की वीतरागता विशेष अधिक हो सकती है। इस विवक्षा की मुख्यता से अनेक वर्षों से दीक्षित मुनिराजों को चरणानुयोग बड़ा मानता है। यह कथन भी सापेक्ष ही समझना चाहिए; क्योंकि अल्पकाल के दीक्षित मुनिराज भी निजशुद्धात्मा के ध्यानरूप विशेष पुरुषार्थ से पुराने मुनिराज से भी अधिक वीतरागता प्रगट कर सकते हैं। यह सब कार्य परिणामों की विचित्रता और पुरुषार्थ की विशेषता से होते हैं। यही कारण है कि तीर्थंकर बननेवाले आदिनाथ मुनिराज एक हजार वर्ष मुनि दशा में साधना करने के बाद अरहंत भगवान हो सके । बाहुबली मुनिराज को केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए एक ही वर्ष पर्याप्त रहा। श्री मल्लिनाथ मुनिराज के लिए अरहंत अवस्था की प्राप्ति मात्र छह दिन की साधना से ही हो गई थी। और भरत मुनिराज ने तो केवल अंतर्मुहूर्त की साधना से ही केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया था । (१) आचार्य, उपाध्याय तथा साधु सामान्य दृष्टि से इन तीनों परमेष्ठियों की वीतरागता समान होने पर भी गणधरादि पद पर आसीन साधु परमेष्ठी की शुद्धि विशिष्ट होती है । (२) जिन मुनिराजों को परिहारविशुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्राप्त हुई हैं उनकी तथा अनंतानुबंधी कषाय

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