Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 61
________________ १२० गुणस्थान विवेचन उपरिम गुणस्थानों से नीचे के गुणस्थानों में आये हुए मुनिराज तो तत्काल ही आत्माश्रित ध्यान-मग्नता का विशेष पुरुषार्थ करके सातवें अप्रत्तसंयत गुणस्थान में पहुँचकर प्रचुर स्वसंवदेनरूप विशिष्ट अनुपम आनंद का अनुभव करते हैं। प्रयत्न करने पर भी मुनि-दशा के योग्य छठवें-सातवें गुणस्थानरूप भावलिंग की प्राप्ति नहीं होती; तो स्वयं ही मुनिभेष/द्रव्यलिंग का त्याग करना, यह उपाय नहीं है। प्रत्येक अंतर्मुहूर्त में ही नहीं यथार्थ मुनिपना प्राप्त करने के लिए बुद्धिपूर्वक सतत प्रयास करते ही रहना अति आवश्यक है। जैसे आचार्य वारिषेण के शिष्य पुष्पडाल ने प्रयास किया है। आचार्य ने भी अपने शिष्य को मुनि-पद में स्थिर करने के ही अनेक उपाय किये हैं। आगम के अध्ययन से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि अनेक दिगम्बर मुनिराज अपने मुनि-जीवन अर्थात् मनुष्य जीवन के अंतिम समय पर्यंत द्रव्यलिंगी मुनिराज ही बने रहते हैं और अगले भव में नव ग्रैवेयक में भी जन्म ले सकते हैं । नव ग्रैवेयक में द्रव्यलिंगी मुनिराज जन्म लेते हैं, यह कथन आगम में सर्वत्र मिलता है। इससे हमें यही निर्णय आगमानुसार उचित प्रतीत होता है कि गृहीत व्रतों का त्याग करना उपाय नहीं है। व्रतों के अनुसार आंतरिक जीवन धर्ममय बनाना कर्तव्य है। ४३. प्रश्न : रत्नकरण्डश्रावकाचार के रचयिता आचार्य समन्तभद्र ने अपने पूर्व जीवन में भस्मक रोग होने के कारण और आचार्य आर्यनन्दी ने (क्षत्रचूड़ामणि में उल्लेखित) भी मुनिपद का त्याग किया है; यह विषय शास्त्र में आया हुआ है। अत: आप इसे स्पष्ट समझाइए। उत्तर : उनके जीवन का उदाहरण लेना हो तो आचार्य समन्तभद्र के प्रभावना कार्य का एवं आचार्य आर्यनन्दी के मुक्ति-प्राप्त करनेरूप आदर्श पुरुषार्थ का लेना चाहिए। मुनिपद का त्याग तो अपरिहार्य कारण से एवं गुरु के उपदेश से हआ है। जो जीवन सर्वोत्तम न हो उसके अनुसरण का विचार अपने मनोभूमिका की मलिनता को ही स्पष्ट करता है। अत: गृहीत व्रतों के त्याग का विचार करना सही मार्ग नहीं है। वास्तविक देखा जाए तो गृहीत व्रतों के निर्दोष पालन के साथ निज शुद्धात्मा के ध्यान से भावलिंग प्रगट करने का अविरत प्रयास ही श्रेयस्कर उपाय है। अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान १२१ ५. उपशम श्रेणी की अपेक्षा उपशम श्रेणी के चारों गुणस्थानों में मरण हो जाय तो सीधे चौथे गुणस्थान में आते हैं अर्थात् मरण के अंत समय पर्यंत तो श्रेणी का वही गुणस्थान रहता है; किन्तु विग्रहगति में प्रथम समय से ही चौथा गुणस्थान हो जाता है। ४४. प्रश्न : सादि वा अनादि कोई भी मिथ्यादृष्टि मनुष्य क्या मिथ्यात्व से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति कर सकता है या उसकी कुछ विशिष्ट पात्रता आवश्यक है? उत्तर : दोनों मिथ्यादृष्टियों को सम्यक्त्व के लिये पुरुषार्थ एवं पात्रता समान ही होती है। हाँ, इतना अवश्य है कि जिनकी पात्रता विशेष होती है वे शीघ्र ही सम्यक्त्वरूपी रत्न को उपलब्ध कर सकते हैं। विशिष्ट कारणों से पात्रता को प्राप्त मिथ्यादृष्टि ही अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति कर सकता है; सर्व अथवा कोई भी मिथ्यादृष्टि नहीं। ४५. प्रश्न : अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान की प्राप्ति के लिए पात्रता का स्वरूप क्या है ? उत्तर : गृहीत मिथ्यात्व का पूर्ण त्याग आवश्यक है। रागी-द्वेषी देवी-देवताओं को मानने, पूजनेवाले गृहीत मिथ्यादृष्टि जीव को चौथा अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान प्राप्त नहीं हो सकता। वीतरागी, सर्वज्ञ व हितोपदेशी देव ही सच्चे देव हैं; वीतरागता की पोषक वाणी ही सच्चे शास्त्र हैं, छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी दिगम्बर साधु ही गुरु हैं; ऐसा दृढ़ श्रद्धावान मिथ्यादृष्टि ही सम्यग्दृष्टि होने के लिए पात्र हैं। सच्चे देव, शास्त्र, गुरु की अंतरंग-बहिरंग लक्षण दृष्टि से निर्णयात्मक ज्ञान-श्रद्धा के बिना कोई कितना ही प्रयास करे, वह जीव अविरतसम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता। देव, शास्त्र, गुरु - इन तीनों में से किसी एक का भी यथार्थ श्रद्धान न हो तो तीनों का सच्चा श्रद्धान नहीं है। अन्याय, अनीति और अभक्ष्य के बाह्य त्यागमय सदाचारी जीवन के बिना धर्म समझ में आना भी कठिन है। जैन कुलाचार पालन करनेवालों को अर्थात् अष्ट मूलगुणों (मद्य, मांस, मधु - इन तीन मकार और पंच उदम्बर फलों का त्यागरूप अष्टमूलगुणों) को धारण किए बिना सम्यक्त्व की प्राप्ति की पात्रता भी नहीं आ सकती है।

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