Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 60
________________ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान ११९ ११८ गुणस्थान विवेचन इसतरह तीर्थंकर होनेवाले युवक महावीर को भी द्रव्यलिंगपूर्वक ही भावलिंग हआ है। इसतरह द्रव्यलिंग और भावलिंग का परस्पर सुमेल सब जीवों के लिए अनादि से है और आगे भी अनंत काल पर्यंत रहेगा; ऐसा समझना चाहिए। ४०. प्रश्न : तीर्थंकर तो अपनी आठ वर्ष की उम्र में ही पंचम गुणस्थानवर्ती व्रती श्रावक हो जाते हैं; ऐसा हमने पार्श्वपुराण शास्त्र में पढ़ा है। उसका क्या तात्पर्य है? उत्तर : पार्श्वपुराण प्रथमानुयोग का शास्त्र है। वहाँ स्थूलरूप से सामान्य कथन किया है। वहाँ तीर्थंकर होनेवाले ८ वर्ष के बालक का बाह्य आचरण पंचम गुणस्थानवी व्रती श्रावक के समान होता है; यह समझाने का भाव है। आचार्यों ने बालक तीर्थंकर के आदर्श जीवन को प्रस्तुत करके साधक जीवों को उन जैसे जीवन बनाने के लिए प्रेरणा दी है। वस्तुत: बात यह है कि तीर्थंकर आदि विशिष्ट पदवी धारक महापुरुषों के अणुव्रतरूप अल्प पुरुषार्थ नहीं होता। वे तो सीधे महाव्रतों को ही अंगीकार करते हैं; क्योंकि उनका पुरुषार्थ महान ही होता है। ४१. प्रश्न : आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने अष्टपाहूड-भावपाहुड के गाथा ७३ में तो प्रथम भावलिंग प्रगट करो, तदनंतर द्रव्यलिंग के स्वीकार करने की प्रेरणा दी है। उसका क्या अभिप्राय है ? उत्तर : आचार्यश्री ने उस गाथा में सम्यग्दर्शन को भावलिंग कहा है। मिच्छत्ताईं य दोस चइऊणं का अर्थ है मिथ्यात्वादि दोषों को छोड़कर । आचार्यश्री को वहाँसम्यग्दर्शन अर्थ अभिप्रेत है । सम्यग्दर्शन के बिना मुनिपने का यथार्थ पुरुषार्थ प्रगट ही नहीं होता; अत: अनादिनिधन मार्ग तो यही है कि पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना और तदनंतर संयम धारण करना । मिथ्यात्व की ग्रंथि निकालना ही प्रथम दृष्टि की अपेक्षा निग्रंथता है। आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने णग्गो ही मोक्खमग्गो नग्नता ही मोक्षमार्ग है; ऐसा स्पष्ट कहा है। ४२. प्रश्न : फिर आचार्यश्री कुन्दकुन्द के वचनानुसार बाह्य नग्नता को ही मोक्षमार्ग और मुनिपना क्यों न मान लिया जाय ? तीन कषाय चौकड़ी के अनुदयरूप वीतरागता की क्या जरूरत है ? उत्तर : णग्गो हि मोक्खमग्गो यह कथन व्यवहार नय का है; जो बाह्य निमित्त की अपेक्षा से सही होने पर भी निश्चय की अपेक्षा रखता है। एक ही नय के विषय को स्वीकार करने से मिथ्यात्व का प्रसंग आता है। अत: शरीर की नग्नता आदि २८ मूलगुणमय द्रव्यलिंग का पालन करनेरूप रागभाव अर्थात् पुण्यमय परिणाम और तीन कषाय चौकड़ी के अनुदय से व्यक्त वीतरागभाव - इन दोनों के सद्भाव से ही छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका बनती है। अब चौथे गुणस्थान से नीचे के गुणस्थानों में गमन करने के सम्बन्ध में विचार करते हैं। ३. चतुर्थ गुणस्थानवर्ती अविरत सम्यग्दृष्टि के सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म की सत्ता हो और उसकी निर्मल श्रद्धा अपने ही अपराध से या पूर्व कुसंस्कारवश मिश्र भावरूप हो जाये तो उसीसमय मिश्र कर्म का उदय आने से वह तीसरे मिश्र गुणस्थान में प्रवेश करता है। ४. यह चतुर्थ गुणस्थानवर्ती यदि औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो और स्वयमेव ही विपरीत पुरुषार्थ से उसे अनंतानुबंधी कषाय परिणाम हो जाये तो उसीसमय अनंतानुबंधी कषाय कर्म का उदय भी स्वयमेव आता है और यह जीव सासादनसम्यक्त्व नामक दूसरे गुणस्थान में गमन करता है। ५. यदि (क्षायिक सम्यग्दृष्टि को छोड़कर) किसी अविरतसम्यग्दृष्टि की परिणति मिथ्यात्वभावरूप हो जाये और उसीसमय मिथ्यात्व कर्म का उदय भी आ जावे तो वह मिथ्यात्व गुणस्थान में प्रवेश करता है। आगमन - १.सादि या अनादि मिथ्यादृष्टि जीव शुद्धात्मा के आश्रय से मिथ्यात्व गुणस्थान से सीधे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आ सकते हैं। २. सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानवी जीवों का भी शुद्धात्मा के आश्रय से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आगमन हो सकता है। ३. देशविरत गुणस्थानवी जीवों का अपनी पुरुषार्थ-हीनता से अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान में आना संभव है। ४. छठवें गुणस्थानवर्ती महामुनिराज भी अपने पुरुषार्थ की कमी से सीधे चौथे गुणस्थान में आ सकते हैं।

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