Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 54
________________ १०६ गुणस्थान विवेचन गुणस्थान में भी सम्यक्प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के उदय अवस्था को प्राप्त हुए स्पर्धकों का क्षय होने से, सत्ता में स्थित उन्हीं का उदयाभाव लक्षण उपशम होने से तथा मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों के उदय होने से मिथ्यात्व गुणस्थान की उत्पत्ति पाई जाती है। इतने कथन से यह तात्पर्य समझना चाहिये कि तीसरे गुणस्थान में मिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृति और अनन्तानुबन्धी के क्षयोपशम से क्षायोपशमिक भाव न होकर केवल मिश्र प्रकृति के उदय से मिश्रभाव होता है। - गुरुभक्ति का अन्यथा रूप - कितने ही जीव आज्ञानुसारी हैं। वे तो - यह जैन के साधु हैं, हमारे गुरु हैं, इसलिये इनकी भक्ति करनी - ऐसा विचार कर उनकी भक्ति करते हैं। और कितने ही जीव परीक्षा भी करते हैं। वहाँ यह मुनि दया पालते हैं, शील पालते हैं, धनादि नहीं रखते, उपवासादि तप करते हैं, क्षुधादि परिषह सहते हैं, किसी से क्रोधादि नहीं करते हैं, उपदेश देकर औरों को धर्म में लगाते हैं - इत्यादि गुणों का विचार कर उनमें भक्तिभाव करते हैं, परन्तु ऐसे गुण तो परमहंसादिक अन्यमतियों में तथा जैनी मिथ्यादृष्टियों में भी पाये जाते हैं, इसलिये इनमें अतिव्याप्सिपना है। इनके द्वारा सच्ची परीक्षा नहीं होती। तथा जिन गुणों का विचार करते हैं, उनमें कितने ही जीवाश्रित हैं, कितने ही पुद्गलाश्रित हैं, उनके विशेष न जानते हए असमानजातीय मुनिपर्याय में एकत्वबुद्धि से मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं। तथा सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्र की एकतारूप मोक्षमार्ग वह ही मुनियों का सच्चा लक्षण है. उसे नहीं पहिचानते; क्योंकि यह पहिचान हो जाये तो मिथ्यादृष्टि रहते नहीं। इसप्रकार यदि मुनियों का सच्चा स्वरूप ही नहीं जानेंगे तो सच्ची भक्ति कैसे होगी ? पुण्यबन्ध के कारणभूत शुभक्रियारूप गुणों को पहिचानकर उनकी सेवा से अपना भला होना जानकर उनमें अनुरागी होकर भक्ति करते हैं। - मोक्षमार्गप्रकाशक, अध्याय-७, पृष्ठ-२५७ अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान चौथे गुणस्थान का नाम अविरतसम्यक्त्व है। इस गुणस्थान की विस्तारपूर्वक चर्चा करने के पहले चौथे गुणस्थान में दर्शनमोहनीय कर्म का क्या निमित्तपना है; उसका स्पष्टीकरण करते हैं - (१) यदि जीव औपशमिक सम्यग्दृष्टि हो तो दर्शनमोहनीय की तीन, दो या एक कर्म प्रकृति का और चारित्रमोहनीय की अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क कर्म प्रकृति का - इसतरह सात, छह अथवा पांच प्रकृतियों का उपशम रहता है। (२) यदि जीव क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि हो तो मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क इसतरह छह कर्म प्रकृतियों का क्षयोपशम अर्थात् सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय और सदवस्थारूप उपशम रहता है और देशघाति सम्यक्प्रकृति दर्शनमोहनीय कर्म का उदय रहता है। इतना विशेष है कि अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क, मिथ्यात्व एवं सम्यग्मिथ्यात्व ये छहों प्रकृतियाँ उदयावलि में तो रहती हैं; परंतु उदय से एक समय पूर्व स्तिबुक संक्रमण द्वारा यथायोग्य अन्य प्रकृतियों में संक्रमित होकर उदय में आती हैं। (३) यदि जीव क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो तो मिथ्यात्वादि तीन दर्शनमोहनीय और अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क का क्षय रहता है। आचार्यश्री नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २९ में अविरत सम्यक्त्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं, सम्माइट्ठी अविरदो सो॥

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