Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 51
________________ गुणस्थान विवेचन अनेकांत का अर्थ यह है कि जिन धर्मों का जिस आत्मा में अत्यंत अभाव नहीं है, वे धर्म उस आत्मा में किसी काल और किसी क्षेत्र की अपेक्षा युगपत पाये जा सकते हैं, इसप्रकार समीचीन और असमीचीनरूप इन दोनों श्रद्धाओं का क्रमश: एक आत्मा में रहना संभव है तो कदाचित् किसी आत्मा में एक साथ भी उन दोनों का रहना बन सकता है। यह सब कथन काल्पनिक नहीं है; क्योंकि मित्रामित्रन्याय से एक काल में और एक ही आत्मा में मिश्ररूप परिणाम हो सकते हैं। १०० जिसप्रकार देवदत्त नामक किसी मनुष्य में यज्ञदत्त की अपेक्षा मित्र और चैत्र की अपेक्षा अमित्रपना ये दोनों धर्म एक ही काल में रहते हैं, उनमें कोई विरोध नहीं। इसीतरह सम्यक्त्व व मिथ्यात्व का मिश्रभाव भी आत्मा में रहता है। ३०. प्रश्न : पांच प्रकार के भावों में से तीसरे गुणस्थान में कौनसा भाव है ? उत्तर : तीसरे गुणस्थान में क्षायोपशमिक भाव है। ३१. प्रश्न : मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान को प्राप्त होनेवाले जीव के क्षायोपशमिक भाव कैसे संभव है ? उत्तर : संभव है; क्योंकि वर्तमान समय में मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावी क्षय होने से और सम्यग्मिथ्यात्व कर्म के सर्वघाति स्पर्धकों का उदय होने से सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान उत्पन्न होता है; इसलिए वह भाव क्षायोपशमिक ही है। (सम्यग्ज्ञानचंद्रिका, पृष्ठ : ८९) ३२. प्रश्न : तीसरे गुणस्थान में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का उदय भी है, फिर वहाँ औदयिक भाव क्यों नहीं कहा है ? उत्तर : नहीं; क्योंकि मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जिसप्रकार सम्यक्त्व का निरन्वय पूर्ण नाश होता है; उसीप्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सम्यक्त्व का निरन्वय नाश नहीं पाया जाता। इसलिए तीसरे गुणस्थान में औदयिक भाव न कहकर क्षायोपशमिक भाव कहा है। सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) गुणस्थान १०१ ३३. प्रश्न : सम्यग्मिथ्यात्व का उदय सम्यग्दर्शन का निरन्वय विनाश तो करता नहीं है, फिर उसको सर्वघाति क्यों कहा ? उत्तर : ऐसी शंका ठीक नहीं है; क्योंकि वह सम्यग्दर्शन की पूर्णता का प्रतिबंधक है, इस अपेक्षा से सम्यग्मिथ्यात्व को सर्वघाति कहा है। (विशेष स्पष्टीकरण के लिये सत्प्ररूपणा सूत्र पेज संख्या १३ व १४ देखिए ।) आचार्य श्री नेमिचन्द्रस्वामी ने गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २१ में सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान की परिभाषा निम्नानुसार दी है - सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण । णय सम्म मिच्छं पिय, सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥ सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म के उदय के समय में अर्थात् निमित्त से गुड़ मिश्रित दही के स्वाद के समान होनेवाले जात्यन्तर परिणामों को सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान कहते हैं। गुड़ मिश्रित दही के स्वाद के समान का अर्थ गुड़ का स्वाद मीठा और दही का स्वाद खट्टा होता है। दोनों के मिलने पर मीठा-खट्टा मिला हुआ स्वाद होता है। वैसे ही जीव के श्रद्धागुण की पर्याय जब सम्यक् तथा मिथ्या दोनोंरूप होती है, तब उसे न सम्यक् कह सकते हैं न मिथ्या । इसलिए श्रद्धागुण की जो मिश्ररूप पर्याय होती है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं । जब जीव के श्रद्धागुण की मिश्ररूप अवस्था होती है, तब सहज ही सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोहनीय कर्म का उदय भी रहता है। जात्यंतर शब्द का अर्थ अलग ही जाति का अर्थात् श्रद्धा न सम्यक् है और न मिथ्या है, इसलिए जात्यंतर शब्द का प्रयोग किया है। चारित्र अपेक्षा विचार - सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान में जीव का चारित्र मिथ्या ही होता है। चारित्र गुण की पर्याय श्रद्धा गुण की पर्याय का अनुसरण करती है। यदि श्रद्धा यथार्थ नहीं है तो चारित्र यथार्थ नहीं हो सकता है, ऐसा नियम है। तीसरे गुणस्थान में श्रद्धा यथार्थ नहीं है; इसलिए चारित्र भी मिथ्या ही है। -

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