Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ गुणस्थान विभाजन गुणस्थान विवेचन नियम से क्षय करके केवली भगवान होकर सिद्ध हो जाते हैं। ११. प्रमत्त तथा अप्रमत्त भाव की अपेक्षा - मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर प्रमत्तसंयत गुणस्थान पर्यंत छहों गुणस्थानवर्ती सर्व जीव नियम से प्रमत्तभाव सहित हैं। अप्रमत्त गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत के सर्व आठों गुणस्थानवी मनिराज अप्रमत्तभाव सहित हैं। १२. योग और अयोग की अपेक्षा - प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर तेरहवें सयोगकेवली गुणस्थान पर्यंत के तेरह गुणस्थानवर्ती सर्व जीव सयोगी हैं और मात्र चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानवर्ती अरहंत परमात्मा ही अयोगी हैं। १३. रागी और वीतरागी की अपेक्षा से तीन भेद होते हैं - (१) मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र पर्यंत तीनों गुणस्थानवर्ती जीव, वीतरागभाव से रहित मात्र रागादि परिणामवाले हैं, मोक्षमार्ग के विराधक हैं। (२) चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यंत के सातों गुणस्थानवर्ती जीव राग तथा वीतरागरूप मिश्र परिणामों के धारक साधक जीव हैं। (३) ग्यारहवें गुणस्थान उपशांतमोह से लेकर अयोगकेवली पर्यंत के चारों गुणस्थानवर्ती सर्व महापुरुष नियम से पूर्ण वीतराग परिणाम के धारक ही होते हैं। १४. दुःख और सुख की अपेक्षा से चार प्रकार का विभाजन - (१) मिथ्यात्व से मिश्र गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव नियम से दुःखी ही हैं; क्योंकि मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम से जीव को दु:ख ही भोगना पड़ता है। यथार्थ वस्तुस्वरूप के ज्ञान से ही सुख की प्राप्ति होती है। (२) चौथे अविरतसम्यक्त्व नामक गुणस्थान से दसवें सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान पर्यंत सात गुणस्थानवर्ती साधक जीव कथंचित् दुःखी भी हैं और कथंचित् सुखी भी हैं । कषाय के सद्भाव के कारण यथासंभव दुःख है और यथायोग्य कषाय के अभाव से उत्पन्न वीतरागता से यथासंभव सुख भी है। (३) सत्ता रहते हुए भी कषाय का सर्वथा उदय का अभाव ग्यारहवें उपशांतमोह में तथा सत्ता और उदय की अपेक्षा से भी सर्वथा अभाव बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान में होता है। अतः ये वीतरागी मुनीश्वर पूर्ण अतीन्द्रिय सुखी हैं। (४) तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थानों में पूर्ण वीतरागता के साथ केवलज्ञान भी रहता है। इसलिये इन दोनों गुणस्थानों में सुख अनंतरूप से परिणमित होता है; अत: अरहंत भगवान अनंत सुखी हैं। १५. बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा की अपेक्षा भेद - (१) मिथ्यात्व से तीसरे मिश्र गुणस्थान पर्यंत तीनों गुणस्थानवर्ती सर्व जीव बहिरात्मा ही हैं। इन्हें दुःखी, अज्ञानी, विराधक और संसारमार्गी ही जानना चाहिए। (२) चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर बारहवें क्षीणमोह गुणस्थान पर्यंत नौ गुणस्थानवर्ती सर्व जीव अंतरात्मा हैं। ये सर्व सम्यग्ज्ञानी, साधक, मोक्षमार्गी और यथापदवी सुखी हैं। (३) तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती सयोग-अयोगकेवली जिनेंद्रों को परमात्मा कहते हैं। ये केवलज्ञानी अनंत सुखी तो हैं ही और शीघ्र ही सिद्ध परमात्मा होकर अव्याबाध अनन्त सुख को प्राप्त करनेवाले हैं। १६. अशुभोपयोगी, शुभोपयोगी, शुद्धोपयोगी की अपेक्षा - मिथ्यात्व से तीसरे मिश्र गुणस्थान पर्यंत तीनों गुणस्थानवर्ती जीव मुख्यत: अशुभोपयोगी हैं। चौथे से लेकर छठवें गुणस्थान पर्यंत के तीनों गुणस्थानवर्ती जीव मुख्यतः शुभोपयोगी और चौथे, पाँचवें गुणस्थानवर्ती गौणरूप से शुद्धोपयोगी भी हैं। सातवें से बारहवें गुणस्थान पर्यंत के सर्व जीव बढ़ते हुए शुद्धोपयोगी हैं एवं तेरहवें तथा चौदहवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग का फल है। एक अपेक्षा से चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यंत के ग्यारह गुणस्थानवर्ती सर्व जीव धर्मात्मा ही कहलाते हैं। १७. धार्मिक-अधार्मिक की अपेक्षा - मिथ्यात्व से लेकर तीसरे मिश्र गुणस्थान पर्यंत तीन गुणस्थानवर्ती सर्व जीव अधार्मिक ही हैं। चौथे अविरतसम्यक्त्व से लेकर चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानपर्यंत ग्यारह

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