Book Title: Gunsthan Vivechan
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ गुणस्थान विभाजन गुणस्थान विवेचन गुणस्थानवर्ती सर्व जीव धार्मिक ही हैं; क्योंकि उनके जीवन में रत्नत्रयरूप धर्म होता है। इनको क्रम से अयथार्थ पुरुषार्थी और यथार्थ पुरुषार्थी भी कह सकते हैं। १८. मिथ्या-सम्यक्चारित्र की अपेक्षा - मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र तीनों गुणस्थानवर्ती जीव मिथ्याचारित्रवान हैं; क्योंकि ये जीव सम्यग्दृष्टि नहीं होते। चौथे अविरतसम्यक्त्व गुणस्थान से लेकर चौदहवें अयोगकेवली गुणस्थानपर्यंत के सर्व जीव सम्यक्चारित्रवान होते हैं; क्योंकि ये सर्व जीव सम्यग्दृष्टि हैं। जहाँ श्रद्धा सम्यक् हुई वहाँ ज्ञान एवं चारित्र नियम से सम्यक् अर्थात् यथार्थ ही होते हैं। इसप्रकार मोह तथा योग के सद्भाव-असद्भाव की अपेक्षा से लेकर मिथ्या तथा सम्यक् चारित्र की अपेक्षा पर्यंत अठारह अपेक्षाओं से गुणस्थानों का विभाजन हो सकता है। ३. प्रश्न : हम अभी वर्तमान में किस गुणस्थान में हैं, यदि यह जानना चाहें तो कैसे जाना जा सकता है ? उत्तर : "अमूर्तिक प्रदेशों का पुंज, प्रसिद्ध ज्ञानादि गुणों का धारी अनादिनिधन वस्तु आप है और मूर्तिक पुद्गल द्रव्यों का पिण्ड प्रसिद्ध ज्ञानादिकों से रहित जिनका नवीन संयोग हुआ ऐसे शरीरादिक पुद्गल पर हैं; इनके संयोगरूप नाना प्रकार की मनुष्य-तिर्यंचादिक पर्यायें होती हैं - उन पर्यायों में अहंबुद्धि धारण करता है, स्व-पर का भेद नहीं कर सकता, जो पर्याय प्राप्त करे उस ही को आपरूप मानता है। तथा उस पर्याय में ज्ञानादिक हैं वे तो अपने गुण हैं और रागादिक हैं वे अपने को कर्मनिमित्त से औपाधिकभाव हए हैं तथा वर्णादिक हैं वेशरीरादिक पुद्गल के गुण हैं और शरीरादिक में वर्णादिकों का तथा परमाणुओं का नानाप्रकार पलटना होता है, वह पुद्गल की अवस्था है; सो इन सब ही को अपना स्वरूप जानता है, स्वभाव-परभाव का विवेक नहीं हो सकता। तथा मनुष्यादिक पर्यायों में कुटम्ब-धनादिक का सम्बन्ध होता है, वे प्रत्यक्ष अपने से भिन्न हैं तथा वे अपने अधीन नहीं परिणमित होते तथापि उनमें ममकार करता है कि ये मेरे हैं। वे किसी प्रकार भी अपने होते नहीं, यह ही अपनी मान्यता से ही अपने मानता है । तथा मनुष्यादि पर्यायों में कदाचित् देवादिक का या तत्त्वों का अन्यथा स्वरूप जो कल्पित किया उसकी तो प्रतीति करता है; परन्तु यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसी प्रतीति नहीं करता।" इसप्रकार पण्डितप्रवर श्री टोडरमलजी ने दर्शनमोह के उदय से होनेवाले जीव के परिणामों का वर्णन मोक्षमार्गप्रकाशक पृष्ठ ३८ पर किया है। इसके आधार से पात्र जीव अपने स्थान का निर्णय लेने का निम्नानुसार प्रयास कर सकता है - सर्वप्रथम हमें स्व-आत्मा और पर देहादि का लक्षण-भेद से यथार्थ निर्णय कर अपने शुभ-अशुभ तथा शुद्ध परिणामों को जानना चाहिए। इसके लिए आगम का अभ्यास, युक्ति का अवलम्बन और परम्परा गुरु के उपदेश का आधार लेकर निर्णय करना चाहिए। १. हम तेरहवें-चौदहवें गुणस्थानवर्ती प्रगट परमात्मा हैं; ऐसा भ्रम होने का तो किसी को अवकाश ही नहीं; क्योंकि अपने में से कोई न तो वीतरागी है, न सर्वज्ञ है और न अनंत सुखी भी। २. जो वस्त्रों का त्याग नहीं कर पाया हो अर्थात् दिगंबर साधु अवस्था को स्वीकार नहीं किया हो, वह छठवें गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज तो है ही नहीं; यह भी स्पष्ट निर्णय है। ३. अब केवल प्रथम गुणस्थान से लेकर पंचम विरताविरत गुणस्थान पर्यंत पांच गुणस्थानों में अपने गुणस्थान को खोजने की बात शेष रह जाती है। यदि जीवन में अहिंसा आदि पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत - इन बारह प्रकार के श्रावकोचित व्रतों का बुद्धिपूर्वक स्वीकार ही न हो तो पाँचवां विरताविरत गुणस्थान भी नहीं है। यह विषय भी हमारी समझ में आ ही रहा है। ___ यदि कदाचित् किसी ने बाह्य में अणुव्रत आदि को भी स्वीकार किया हो और आत्मानुभूति/सम्यग्दर्शनपूर्वक अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण दो कषाय चौकड़ी के अभावपूर्वक वीतरागतारूप आनंद (सुख, धर्म, संवर, निर्जरा, मोक्षमार्ग) का अनुभव किसी को

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