Book Title: Gommatasara Karma kanad Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 10
________________ गा० कमकाण्ड अवगाह रूपसे प्रविष्ट हा पुद्गल स्वभावही कर्मरूपताको प्राप्त होते है। जैसे लोक में अपने योग्य चन्द्र और सूर्य को प्रभाको पाकर पुद्गल स्कन्ध सन्ध्या, मेघ, इन्द्रधनुप रूपसे बिना किसी अन्य ...के स्वयं परिणमन करते हैं वैसे ही अपने योग्य जीवके परिणामोंको निमित्त करके पुदगल कर्म भी बिना किसी अन्य कर्ता के अनेक कर्मरूप परिणमन करते हैं। उन पुद्गलों को भी कर्म शब्दसे ही कहते हैं क्योंकि जीवकी मन, वचन, कायकी क्रियाका निमित्त पाकर वे उस रूप स्वयं परिणमन करते हैं। जीवकी कियाके साथ इस प्रकारके पौदगलिक कर्मबन्धनको अन्य किसी दर्शनने स्वीकार नहीं किया है। यह केवल जैन सिद्धान्तका ही मत है । जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है जैनदर्शन सृष्टिका कर्ता-धर्ता-हर्ता कोई ईश्वर नहीं मानता। यह विश्व अनादि और अनन्त है। इसे किसीने न तो बनाया और न कोई सर्वथा नष्ट करता है। परिणमन वस्तुका स्वभाव है, अतः परिणमन सदा हआ करता है। छह द्रव्यों में से जीव और पदगल इन दो द्रव्यों का संयोग-वियोग सदा चलता रहता है। इसीका नाम संसार है। जैसे खानसे सोना मैल मिट्रीको लिये हुए ही निकलता है उसी तरह संसारमें अनादि कालसे जीव अशद्ध दशाके कारण भ्रमण करते हैं। यदि ऐसा न माना जाये तो अनेक आपत्तियां उपस्थित होती हैं। यदि जोवको प्रारम्भसे ही शद्ध मान लिया जाये तो उसकी अशुद्धता सम्भव नहीं है। आन्तरिक अशुद्धताके बिना नवीन कर्मका बन्ध कैसे हो सकता है। यदि शुद्ध जीव भी बन्धनमें पड़ने लगे तो बन्धनको काटने का उपदेश और उसका आचरण ही व्यर्थ हो जायेगा। इसलिए जीवका प्रारम्भिक रूप जो अनादि है अशुद्ध ही है । तत्त्वार्थसूत्र में बन्धका लक्षण इस प्रकार कहा है 'सकषायत्वात् जीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते स बन्धः' इसकी टीका सर्वार्थसिद्धिका आशय यहाँ दिया जाता है कषायके साथ रहनेसे सकषाय कहलाता है। सकषायके भावको सकषायत्व कहते हैं । उससे अर्थात् सकषाय भावसे । यह हेतु निर्देश है। यह बतलाता है कि जैसे उदरकी पाचक शक्तिके अनुरूप आहारका ग्रहण होता है, उसी प्रकार तीव्र मन्द या मध्यम जैसा कषायभाव होता है उसके अनुरूप कर्मों में स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध होता है। यह ज्ञान कराने के लिए हेतु निर्देश किया गया है। शंका-आत्मा तो अमूर्तिक है, उसके हाथ नहीं है, तब वह कर्मों को कैसे ग्रहण करता है। इसी शंकाको दूर करने लिए 'जीव' शब्द रखा है। जो जीता है अर्थात् प्राणधारण करता है, जिसके पीछे आयुकर्म लगा है वह जीव है। 'कर्मयोग्यान' पाठसे भी काम चल सकता था। उसके स्थानमें जो 'कर्मणो योग्यान' पाठ रखा है वह विशेष अर्थका ज्ञान कराने के लिए है। वह विशेष अर्थ है-'कर्मणो जीवः सकषायो भवति ।' कर्मके निमित्तसे जीव सकषाय होता है। जो कर्मसे रहित है उसके कषाय नहीं होती। इससे यह बतलाया है कि जीव और कर्मका सम्बन्ध अनादि है। इससे यह आशंका दूर हो जाती है व मर्त कर्मसे कैसे बन्धता है। यदि ऐसा न माना जाये अर्थात बन्धको अनादि न मानकर सादि माना जाये तो आत्यन्तिक शुद्धताके धारी सिद्ध जीवकी तरह शुद्ध जीवके कर्मबन्ध ही नहीं हो सकता। दूसरा अर्थ होता है-कर्मके योग्य पुद्गलोंको ग्रहण करता है। इस तरह 'कर्मणः का पहला अर्थ 'कर्मके कारण' बदलकर 'कर्मके योग्य' हो जाता है। 'पुद्गल' शब्द बतलाता है कि कर्म पौद्गलिक है । इससे जो दर्शन अदृष्टको आत्माका गुण मानते हैं उनका निराकरण हो जाता है क्योंकि यदि अदृष्ट ( कर्म ) आत्माका गुण हो तो वह उसके संसारपरिभ्रमण में कारण नहीं हो सकता। अतः मिथ्यादर्शन आदि अभिनिवेशमें भीगे हुए आत्माके सब समयोंमें योगविशेषसे कर्मरूप होने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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