Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith
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गोम्मटसार जीवकाण्ड
इनके सिवाय एक द्रव्यसंग्रह नामक ग्रन्थ भी नेमिचन्द्रमुनि रचित है। इस पर ब्रह्मदेव की टीका है। श्री शरच्चन्द्र घोषाल ने इसका अँगरेजी में अनुवाद किया है। उसकी प्रस्तावना में उन्होंने इसे गोम्मटसार के कर्ता की ही कृति माना है। किन्तु स्व. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार ने उसकी विस्तृत आलोचना करते हुए उनके इस मत को मान्य नहीं किया है। उनकी अनुपपत्तियाँ इस प्रकार हैं-प्रथम द्रव्य-संग्रहकार का सिद्धान्त चक्रवर्ती के रूप में कोई प्राचीन उल्लेख नहीं मिलता। संस्कृत टीकाकर ब्रह्मदेव ने उन्हें सिद्धान्तिदेव प्रकट किया है। सिद्धान्तचक्रवर्ती का पद सिद्धान्ती, अथवा सिद्धान्तिदेव से बड़ा है।
दूसरे ‘गोम्मटसार' के कर्ता नेमिचन्द्र अपने ग्रन्थों में अपने गुरु का नामोल्लेख अवश्य करते हैं। परन्तु 'द्रव्यसंग्रह' में वैसा नहीं किया है। तीसरे टीकाकार ब्रह्मदेव ने अपनी टीका के प्रस्तावना वाक्य में लिखा है कि यह द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव के द्वारा सोम नाम के राजश्रेष्ठि के निमित्त आश्रम नामक नगर में मुनिसुव्रत चैत्यालय में रचा गया। वह नगर उस समय धराधीश महाराज भोजदेव सम्बन्धी श्रीपाल मण्डलेश्वर के अधिकार में था। भोजकाल के नेमिचन्द्र का समय ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी बैठता है।
चौथे द्रव्य संग्रह के कर्ता ने भावानव के भेदों में प्रमाद को भी गिनाया है और अविरत के पाँच तथा कषाय के चार भेद किये हैं। परन्तु गोम्मटसार के कर्ता ने प्रमाद को भावास्रव के भेदों में नहीं माना और अविरत के दूसरे ही प्रकार से बारह तथा कषाय के पच्चीस भेद किये हैं।
मुख्तार साहब की सभी युक्तियाँ जोरदार हैं, किन्तु जहाँ तक सिद्धान्तचक्रवर्ती और सिद्धान्तिदेव के अन्तर की बात है, वह जोरदार प्रतीत नहीं होती; क्योंकि त्रिलोकसार की टीका के प्रारम्भ में टीकाकार माधवचन्द ने अपने गुरु का निर्देश नेमिचन्द्र सैद्धान्तदेव रूप से किया है तथा अपने अन्तिम वक्तव्य की गाथा की टीका में 'गरुणेमिचंद' पद की व्याख्या में 'स्वकीयगुरुनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रिणां अथवा ग्रन्थकर्तणां नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेवानाम्' लिखकर दोनों पदों को समकक्ष प्रमाणित किया है। यहाँ गुरु नेमिचन्द्र के साथ तो सिद्धान्तचक्री पद और ग्रन्थकार नेमिचन्द्र के साथ सिद्धान्तदेव पद का प्रयोग भी उल्लेखनीय है।
__ अतः नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती और नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव तो एक ही व्यक्ति हो सकता है। इसके साथ ही त्रिलोकसार की अन्तिम गाथा के साथ द्रव्यसंग्रह की अन्तिम गाथा की तुलना भी द्रष्टव्य है। त्रिलोकसार की अन्तिम गाथा इस प्रकार है
इदिणेमिचंदमुणिणा अप्पसुदेणभयणंदिवच्छेण ।
रईओ तिलोयसारो खमंतु तं बहुसुदाइरिया ॥ और द्रव्यसंग्रह की अन्तिम गाथा इस प्रकार है
दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुण्णा।
सोधयंतु तणुसुत्तधरेण णेमिचंद मुणिणा भणियं जं ॥ दोनों में ‘णेमिचंद मुणि' पद समान है। 'अप्पसुदेण' और 'तणुसुत्तधरेण' विशेषणों में भी केवल शब्दभेद है; अर्थभेद नहीं है। 'बहुसुदाइरिया' और 'सुदपुण्णा मुणिणाहा' पद भी एकार्थक हैं। अन्तर केवल इतना ही है कि एक में गुरु का नाम है और दूसरे में नहीं है। हमने अपने जैन साहित्य के इतिहास भागर में इस पर विशेष प्रकाश डाला है। अतः यह रचना भी गोम्मटसार के कर्ता की हो सकती है। गोम्मटसार अपरनाम पंचसंग्रह
ग्रन्थकार नेमिचन्द्राचार्य ने तो 'गोम्मटसार' के दूसरे भाग कर्मकाण्ड के अन्त में इस ग्रन्थ का नाम गोम्मट संग्रह सूत्र या गोम्मट सूत्र ही दिया है, जिसका अर्थ होता है गोम्मटराय चामुण्डराय के लिए संग्रह किया गया सूत्रग्रन्थ। किन्तु टीकाकारों ने इसका अपरनाम पंचसंग्रह लिखा है।
जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिनी टीका के प्रारम्भ में लिखा है
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