Book Title: Gommatasara Jiva kanda Part 1
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 19
________________ प्रस्तावना १७ 'त्रिलोकसार' भी चामुण्डराय के प्रतिबोध के लिए रची थी। यह आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य और 'त्रिलोकसार' की संस्कृत टीका के रचयिता माधवचन्द्र ने अपनी टीका के प्रारम्भ में स्पष्ट लिखा है। उसके मंगलाचरण में प्रयुक्त 'बलगोविन्द' का अर्थ उन्होंने बल-चामुण्डराय और गोविन्द-राचमल्लदेव भी किया है। चामुण्डराय गंगनरेश राचमल्लदेव (वि. सं. १०३१-४१) के सेनापति और मन्त्री थे। अतः जैसे वीरसेन स्वामी ने अपने भक्त शिष्य सम्राट अमोघवर्ष की उपाधि को उपलक्षित करके सिद्धान्त ग्रन्थों की अपनी टीकाओं को धवला-जयधवला नाम दिया, उसी प्रकार नेमिचन्द्र ने अपने भक्त शिष्य चामुण्डराय के गोम्मट नाम को उपलक्षित करके उनके निमित्त से निर्मित अपने संग्रह ग्रन्थ को गोम्मटसार नाम दिया-इसमें कोई विवाद नहीं है। किन्तु अनेक उपाधियों से भूषित चामुण्डराय के इस अप्रसिद्ध नाम 'गोम्मट' को ही क्यों इतनी महत्ता आचार्य नामचन्द्र ने दी, इसका कोई हेतु स्पष्ट नहीं होता। स्वयं चामुण्डराय के अपने पुराण में भी इस नाम के सम्बन्ध में कोई संकेत नहीं है। अस्तुग्रन्थकार के गुरु 'गोम्मटसार' आचार्य नेमिचन्द्र की प्रमुख रचना है और उसके दो भाग हैं---जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड। किन्तु इन दोनों के ही अन्त में उन्होंने अपने और अपने गुरु के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं लिखा। कर्मकाण्ड के अन्त में तो आठ गाथाएँ प्रशस्ति सम्बन्धी हैं और जीवकाण्ड के अन्त में एक है। इन सब में राजा गोम्मट का ही जयकार है। उन्हीं के गुरु अजितसेन का निर्देश दोनों भागों के अन्त में अवश्य है। किन्त अपने गरु का नहीं है। हाँ, 'त्रिलोकसार' की अन्तिम गाथा में नेमिचन्द्र मुनि का नाम अवश्य है और उन्हें अभयनन्दि का शिष्य कहा है। किन्तु कर्मकाण्ड के अन्तर्गत प्रकरणों में उनके एक नहीं, अनेक गुरुओं का नामोल्लेख है। यथासत्त्वस्थान नामक तीसरे अधिकार के अन्त में कहा है वरइदंणंदिगुरुणो पासे सोऊण सयलसिद्धतं। सिरिकणयणंदिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिष्टुं ॥३६६॥ इन्द्रनन्दि गुरु के पास में समस्त सिद्धान्त को सुनकर श्री कनकनन्दि गुरु ने सत्त्वस्थान को कहा। इसी के आगे वह गाथा आती है जिसमें चक्रवर्ती के समान छह खण्डों को साधने की घोषणा है। आगे चतुर्थ अधिकार के अन्तर्गत पंचभागहार नामक चूलिका के प्रारम्भ में कहा है-- जत्थ वरणेमिचंदो महणेण विणा सुणिम्मलो जादो। सो अभयणंदि णिम्मलसुओवही हरउ पावमलं ॥४०८॥ जिसमें मथन के बिना ही नेमिचन्द्र अत्यंत निर्मल रूप से प्रकट हुए, वह अभयनन्दिरूपी निर्मल श्रुतसमुद्र पापमल को दूर करे। आगे इसी के अन्तर्गत दसकरणचूलिका के प्रारम्भ में कहा है जस्स य पायपसायेणणंतसंसारजलहिमुत्तिण्णो। वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं अभयणंदिगुरूं ॥४३६॥ जिसके चरणों के प्रसाद से वीरनन्दि और इन्द्रनन्दिका शिष्य अनन्त संसारसमुद्र के पार हो गया, उन अभयनन्दि गुरु को मैं नमस्कार करता हूँ। आगे छठे अधिकार के प्रारम्भ में कहा है णमिऊण अभयणंदिं सुदसायरपारागिंदणंदि गुरूं। वरवीरणंदिणाहं पयडीणं पच्चयं वोच्छं ॥७८५॥ अभयनन्दि को और श्रुतसमुद्र के पारगामी इन्द्रनन्दि गुरु को तथा वीरनन्दि स्वामी को नमस्कार करके प्रकृतियों के प्रत्यय कहूँगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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