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लेखक के हृदयोद्गार
पुस्तक में निश्चयव्यवहार की योग्य सन्धि समझाने का प्रामाणिक प्रयत्न किया है, जिसे सर्व जैन समाज योग्य रीति से समझकर आराधन करे तो जैनधर्म में आमूल क्रान्ति आ सकती है और अभी जो एकान्त प्ररूपणाएँ चलती हैं, जो कि पाखण्ड मतरूप है वे रुक सकती हैं।
मात्र व्यवहारनय को ही मान्य करके, उसे ही प्रधानता देता एक उदाहरण है - सम्यग्दर्शन का स्वरूप; मात्र व्यवहारनय को ही मान्य करनेवाले बहभाग जैन ऐसा मानते हैं कि सम्यग्दर्शन अर्थात् सात/नौ तत्त्वों की (स्वानुभूतिरहित) श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की (स्वानुभूतिरहित) श्रद्धा। सम्यग्दर्शन की यह व्याख्या व्यवहारनय के पक्ष की है परन्तु निश्चयनय के मत से जो एक को अर्थात् आत्मा को जानता है, वही सर्व को अर्थात् सात/नौ तत्त्वों तथा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र को जानता है क्योंकि एक आत्मा को जानते ही वह जीव सच्चे देवतत्त्व का अंशत: अनुभव करता है और इसीलिए वह सच्चे देव को अन्तर से पहिचानता है तथा सच्चे देव को जानते ही अर्थात् (स्वानुभूतिसहित की) श्रद्धा होते ही वह जीव वैसा देव बनने के मार्ग में गतिशील सच्चे गुरु को भी अन्तर से पहिचानता है और साथ ही साथ वह जीव वैसा देव बनने का मार्ग बतानेवाले सच्चे शास्त्र को भी पहिचानता है।
निश्चय सम्यग्दर्शन की सच्ची व्याख्या ऐसी होने पर भी व्यवहारनय के पक्षवालों को सम्यग्दर्शन की ऐसी सच्ची व्याख्या मान्य नहीं होती अथवा वे ऐसी व्याख्या का ही विरोध करते हैं और इसलिए वे सम्यग्दर्शन अर्थात् सात/नौ तत्त्वों की कही जाती (स्वात्मानुभूतिरहित) श्रद्धा अथवा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र की कही जाती (स्वात्मानुभूतिरहित) श्रद्धा इतना ही मानते होने से उन्हें ‘स्वात्मानुभूतिरहित की श्रद्धा' और 'स्वात्मानुभूतिसहित की श्रद्धा' के बीच के अन्तर की खबर ही नहीं होती अथवा खबर करना ही नहीं चाहते; इसलिए वे सम्यग्दर्शन, जो कि धर्म की नींव है उसके विषय में ही अनजान रहकर सम्पूर्ण जिन्दगी क्रिया-धर्म उत्तम रीति से करने पर भी संसार का अन्त करनेवाला धर्म प्राप्त नहीं करते। जो करुणा उत्पन्न करावे ऐसी बात है।
इसी प्रकार जो मात्र निश्चयनय को ही मान्य करके उसे ही प्रधानता देते हैं, वे मात्र ज्ञान की शुष्क (कोरी) बातों में ही रह जाते हैं और आत्मा की योग्यता के विषय में अथवा मात्र नींवरूप सदाचार के विषय की भी घोर उपेक्षा करके, वे भी संसार का अन्त करनेवाले धर्म से तो दूर ही रहते हैं और तदुपरान्त ऐसे लोगों को प्राय: स्वच्छन्दता के कारण अर्थात् पुण्य को एकान्ततः हेय मानने के कारण पुण्य का भी अभाव होने से भव का भी ठिकाना नहीं रहता, जो बात भी अधिक करुणा उपजावे, वैसी ही है।
इसी प्रकार जैन समाज में एक छोटा वर्ग ऐसा भी है कि जिन्होंने वस्तु व्यवस्था को ही विकृत कर दिया है; वे द्रव्य और पर्याय को इस हद तक अलग मानते हैं मानों वे दो अलग द्रव्य