Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 125
________________ 108 दृष्टि का विषय (अर्थात् गौण करके) और अनागत शुभ-अशुभ का निवारण करके (अर्थात् शुभाशुभभावों को गौण करके अर्थात् शुभ-अशुभभावों के विकल्पों को छोड़कर अर्थात् सर्व विभावभावों को गौण करके अर्थात् समयसार गाथा ६ अनुसार का भाव अर्थात् जो प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है, ऐसा एक ज्ञायकभावरूप) जो आत्मा को (अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनय के विषयरूप शुद्धात्मा को) ध्याता है उसे (निश्चय) प्रत्याख्यान है।' अर्थात् सर्व पुरुषार्थमात्र आत्मस्थिरतारूप चारित्र के लिये ही कि जो साक्षात् केवलज्ञान का कारण है। गाथा ९६ अन्वयार्थ-'केवलज्ञानस्वभावी केवलदर्शनस्वभावी, सुखमय और केवल - शक्तिस्वभावी वह मैं हूँ - ऐसा ज्ञानी चिन्तवन करते हैं।' अर्थात् ज्ञानी अपने को कारणसमयसाररूप शुद्धात्मा ही अनुभव करते हैं। श्लोक १२८-‘समस्त मुनिजनों के हृदय-कमल का (मन का) हंस ऐसा जो यह शाश्वत् (त्रिकाली शुद्ध) केवलज्ञान की मूर्तिरूप (ज्ञानमात्र), सकल-विमल दृष्टिमय (शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय-शुद्ध द्रव्यदृष्टि का विषय ऐसा शुद्धात्मा), शाश्वत् आनन्दरूप, सहज परम चैतन्यशक्तिमय (परमपारिणामिक ज्ञानमय) परमात्मा जयवन्त है।' अर्थात् उसे ही भाने योग्य है, उसमें ही मैंपना करने योग्य है। गाथा ९७ अन्वयार्थ-'जो निजभाव को छोड़ता नहीं (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप सहज परिणमन, तीनों काल ऐसा का ऐसा ही होने से अर्थात् उपजने से और वही उसका निजभाव होने से बतलाया है कि वह निजभाव को छोड़ता नहीं और दसरा ज्ञानी को लब्धरूप से वही भाव रहता होने की अपेक्षा से भी कहा है कि निजभाव को छोड़ता नहीं) कुछ भी परभाव को ग्रहण नहीं करता (अर्थात् किसी भी परभाव में मैंपना न करता होने से उसे ग्रहण नहीं करता ऐसा कहा है), सर्व को जानता देखता है (अर्थात् उसे ज्ञानमात्र भाव में ही 'मैपना' होने से सर्व को जानतादेखता है, परन्तु पर में 'मैंपना नहीं करता), वह 'मैं हूँ' (अर्थात् शुद्धात्मा, वह 'मैं हूँ') - ऐसा ज्ञानी चिन्तवन करता है।' अर्थात् अनुभव करता है और ध्याता है अर्थात् वही ध्यान का और सम्यग्दर्शन का विषय है। श्लोक १२९-'आत्मा, आत्मा में निज आत्मिक गुणोंरूप समृद्ध आत्मा को (अर्थात् शुद्धात्मा को)-एक पंचम भाव को (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप आत्मा को) जानता है और देखता है (अनुभवता है), वह सहज एक पंचम भाव को (अर्थात् आत्मा के सहज परिणमनरूप पंचम भाव-परमपारिणामिकभाव को) उसने छोड़ा ही नहीं और अन्य ऐसे परभाव को (अर्थात्

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