Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

View full book text
Previous | Next

Page 136
________________ नियमसार के अनुसार सम्यग्दर्शन और ध्यान का विषय 119 अटवी को जलानेवाली अग्नि है, वह यह मुनि इस काल में भूतल में (पृथ्वी पर) तथा देवलोक में देवों से भी भले प्रकार पूज्य है।' अर्थात् ऐसे समर्थ मुनि कोई विरले ही होते हैं जो कि अत्यन्त आदर के पात्र हैं। श्लोक २४२-‘इस लोक में तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियों को प्राण प्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या (मात्र आत्म लक्ष्य से और मुक्ति के लक्ष्य से) सो इन्द्रों को भी सतत वन्दनीय है। उसे पाकर जो कोई जीव कामान्धकारयुक्त संसार से जनित सुख में रमता है, वह जड़मति अरे रे! कलि से हना हुआ है।' अर्थात् चारित्र अथवा तपश्चर्या अंगीकार करने के बाद भी यदि किसी जीव को काम-भोग के प्रति आदर जीवन्त रहता है तो वैसे जीव को जड़मति कहा है अर्थात् वैसा जीव अपना अनन्त संसार जीवन्त रखनेवाला है। श्लोक २४३-'जो जीव अन्यवश (अर्थात् सम्यग्दर्शनरहित) है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुःख का भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश (अर्थात् सम्यग्दर्शनसहित) है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित् न्यून है।' ___अर्थात् सम्यग्दर्शनसहित मुनि में जिनेश्वरदेव की अपेक्षा जरा सी ही हीनता है अर्थात् वैसे मुनि शीघ्र ही जिनेश्वरपना प्राप्त करनेयोग्य है और सम्यग्दर्शनरहित मुनिवेशधारियों को भी सर्व प्रथम में प्रथम सम्यग्दर्शन प्राप्त करनेयोग्य है क्योंकि उसके बिना मोक्षमार्ग ही शुरु नहीं होता-ऐसा उपदेश भी है। श्लोक २४४- ‘ऐसा होने से ही जिननाथ के मार्ग में मुनिवर्ग में स्ववश मुनि (अर्थात् सम्यग्दर्शनसहित समताधारी मुनि) सदा शोभता है; और अन्यवश मुनि नौकर के समूह में राजवल्लभ नौकर के समान शोभता है।' ___ अर्थात् सर्व संसारीजनरूप नौकरों में वह राजवल्लभ अर्थात् ऊँची पदवीवाले नौकर की तरह शोभता है, उससे अधिक नहीं, अर्थात् वैसा मुनि भी ऊँची पदवीवाला संसारी ही है ऐसा बतलाकर सम्यग्दर्शन की ही महिमा समझायी है जो कि एकमात्र सर्व जीवों को कर्तव्य है। श्लोक २४५-‘मुनिवर देवलोकादि के क्लेश के प्रति रति तजो और निर्वाण के कारण का कारण (अर्थात् निर्वाण का कारणरूप निश्चयचारित्र का कारण, ऐसे सम्यग्दर्शन का विषय) ऐसे सहज परमात्मा को भजो-(अर्थात् जो सम्यग्दर्शन का विषय है, ऐसा परमपारिणामिकभाव जो कि आत्मा का सहज परिणमन है और इसलिए ही उसे सहज परमात्मरूप कहा जाता है, कि जिसमें 'मैंपना' करने पर सम्यग्दर्शन प्रगट होता है जो कि निश्चय चारित्र का कारण है, इसलिए

Loading...

Page Navigation
1 ... 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202