Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 169
________________ 152 दृष्टि का विषय परन्तु यदि निमित्त को कोई एकान्त से अकर्ता माने और स्वच्छन्दता से निर्बल निमित्तों का ही सेवन करे तो वह जीव अनन्त संसारी होकर, अनन्त दुःख को प्राप्त होता है अर्थात् विवेक ऐसा है कि - जीव सर्व खराब निमित्तों से बचकर, शास्त्र स्वाध्याय इत्यादि अच्छे निमित्तों का सेवन करके, शीघ्रता से मोक्षमार्ग में आगे बढ़ता है; नहीं कि एकान्त से निमित्त को अकर्ता मानकर, स्वच्छन्दता से सर्व निर्बल निमित्तों को सेवन करता हुआ अनन्त संसारी अर्थात् अनन्त दुःखी होता है। विवेकीजन जानते हैं कि ‘मात्र निमित्त से कुछ ही नहीं होता और निमित्त बिना भी कुछ ही नहीं होता' अर्थात् स्व का सम्यग्दर्शनरूप जो परिणमन है, वह मात्र निमित्त मिलने से होगा, ऐसा नहीं परन्तु उसके लिये स्वयं अपना-उपादानरूप पुरुषार्थ आदरे तो ही होगा अर्थात् सर्व जनों को सम्यग्दर्शन के लिये नियति इत्यादि कारणों के सामने न देखकर अपना पुरुषार्थ उस दिशा में स्फुरित करना अति आवश्यक है। दुसरा विवेकी जीव समझते हैं कि जो अपने भाव बिगड़ते हैं वे वैसे निमित्त मिलने से बिगड़ते हैं; ऐसा जानकर, खराब निमित्तों से वह निरन्तर दूर ही रहने का प्रयत्न करता है, जैसे कि ब्रह्मचर्य और आत्मध्यान के लिये भगवान ने एकान्तवास का सेवन करना बतलाया है। ऐसा है विवेक निमित्त -उपादानरूप सम्बन्ध का, इसलिए उसे इस परिप्रेक्ष्य में ही समझना, अन्यथा नहीं। यहाँ सम्यग्दर्शन कराने को अर्थात् पर से दृष्टि हटाने के लिये निमित्त को परम अकर्ता कहा है, अन्यथा नहीं। श्लोक ६९-‘जो नय पक्षपात को छोड़कर (अर्थात् हमने पूर्व में अनेक बार बतलाये अनुसार जिसे किसी भी एक नय का आग्रह हो अथवा तो कोई मत-पन्थ-व्यक्ति विशेषरूप पक्ष का आग्रह हो और जो वैसे पूर्वाग्रह-हठाग्रह छोड़ सकते हैं वे) स्वरूप में गुप्त होकर (अर्थात् स्व में अर्थात् शुद्धात्मा में ही मैंपना' करके सम्यग्दर्शनरूप परिणमकर) सदा रहते हैं वे ही (अर्थात् नय और पक्ष को छोडते हैं. वैसे ममक्ष जीव ही सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं और वे ही), जिनका चित्त विकल्प मल से रहित शान्त हुआ है ऐसे होते हुए (अर्थात् निर्विकल्प ‘शुद्धात्मा' का अनुभव करते हुए) साक्षात् अमृत को (अर्थात् अनुभूतिरूप अतीन्द्रिय आनन्द को) पीते हैं (अर्थात् अनुभव करते हैं)।' अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये सर्व जनों को नय और पक्ष का आग्रह छोड़नेयोग्य है। श्लोक ९०-'इस प्रकार जिसमें बहुत विकल्पों का जाल अपने आप उठ रहा है ऐसी महा नयपक्ष कक्षा को (नय के आग्रह को-पक्ष को) उल्लंघन करके (तत्त्ववेदी=सम्यग्दर्शनी होकर)

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