Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 199
________________ 182 दृष्टि का विषय ४१ रात्रि भोजन के सम्बन्ध में रात्रि भोजन का त्याग मोक्षमार्ग के पथिक के लिये तो आवश्यक है ही परन्तु उसके आधुनिक विज्ञान-अनुसार भी अनेक लाभ हैं। जैसे कि रात्रि नौ बजे शरीर की घड़ी (Body Clock) अनुसार पेट में रहे हुए विष तत्त्वों की सफाई का (Detoxification) समय होता है, तब पेट यदि भरा हुआ हो तो शरीर वह कार्य नहीं करता (Skip करता है) अर्थात् पेट में कचरा बढ़ता है परन्तु जो रात्रि भोजन नहीं करते, उनका पाचन नौ बजे तक में हो गया होने से उनका शरीर विष तत्त्वों की सफाई का कार्य भले प्रकार से कर सकता है। दूसरा रात्रि में भोजन के पश्चात् दो से तीन घण्टे तक सोना निषिद्ध है और इसलिए जो रात्रि में देरी से भोजन करते हैं, वे देरी से सोते हैं परन्तु रात्रि में ग्यारह से एक बजे के दौरान गहरी नींद (Deep Sleep) लीवर की सफाई और उसकी नुकसान भरपाई (Cell Regrowth) के लिए अत्यन्त आवश्यक है। जो कि रात्रि भोजन करनेवाले के लिए शक्य नहीं है। इसलिए यह भी रात्रि भोजन का बड़ा नुकसान है। आरोग्य की दृष्टि से इसके अतिरिक्त भी रात्रि भोजन त्याग के दूसरे अनेक लाभ हैं। आयुर्वेद, योगशास्त्र और जैनेतर दर्शन के अनुसार भी रात्रि भोजन निषिद्ध है। जैनेतर दर्शन में तो रात्रि भोजन को माँस खाने के समान और रात्रि में पानी पीने को खून पीने के समान बतलाया है और दसरा, रात्रि भोजन करनेवाले के सर्व तप-जप-यात्रा सब व्यर्थ होते हैं और रात्रि भोजन का पाप सैकड़ों चन्द्रायतन तप से भी नहीं धुलता - ऐसा बतलाया है। जैनदर्शन के अनुसार भी रात्रि भोजन का बहुत पाप बतलाया है। यहाँ कोई ऐसा कहे कि रात्रि भोजन त्याग इत्यादि व्रत अथवा प्रतिमाएँ तो सम्यग्दर्शन के बाद ही होती है तो हमें इस रात्रि भोजन का क्या दोष लगेगा? तो उन्हें हमारा उत्तर है कि रात्रि भोजन का दोष सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यादष्टि को अधिक ही लगता है। क्योंकि मिथ्यादष्टि उसे रच-पच कर सेवन (करता) होता है, जबकि सम्यग्दृष्टि को आवश्यक न हो, अनिवार्यता न हो तो ऐसे दोषों का सेवन ही नहीं करता और यदि किसी काल में ऐसे दोषों का सेवन करता है तो भी भीरुभाव से और रोग की औषधिरूप से करता है; नहीं कि आनन्द से अथवा स्वच्छन्द से। इस कारण किसी भी प्रकार का छल किसी को धर्म शास्त्रों में से ग्रहण नहीं करना क्योंकि धर्मशास्त्रों में प्रत्येक बात अपेक्षा से होती है। इसलिए व्रत और प्रतिमाएँ पंचम गुणस्थान में कही हैं, उसका अर्थ ऐसा नहीं निकालना कि अन्य कोई निम्न भूमिकावालों को उसे अभ्यास के लिये अथवा तो पाप से बचने के लिए ग्रहण नहीं कर सकता। बल्कि सबको अवश्य ग्रहण करनेयोग्य ही है, क्योंकि जिसे दुःख प्रिय नहीं है- ऐसे जीव, दुःख के कारणरूप पापों को किस प्रकार आचरण कर सकते हैं? अर्थात् आचरण कर ही नहीं सकते। अस्तु

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