Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 182
________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 165 करके दर्पण को दर्पणरूप ही अनुभव करता है, उसी प्रकार) ज्ञान, ज्ञेय को जानता है (अर्थात् ज्ञान का स्व-पर प्रकाशकपना है, 'आत्मा वास्तव में पर को नहीं जानता' ऐसा स्वरूप नहीं) वह तो इस ज्ञान के शुद्धस्वभाव का उदय है, ऐसा है। (अर्थात् ज्ञान स्वभाव से ही स्व-पर को जानता है ऐसा ही है) तो फिर लोग (अज्ञानी=मिथ्यादृष्टि लोग) ज्ञान को अन्य द्रव्य के साथ स्पर्श होने की मान्यता से व्याकुल बुद्धिवाले होते हुए (अर्थात् अज्ञानी मिथ्यात्वी ज्ञान पर को जाने तो ज्ञान को पर के साथ स्पर्श हो गया मानकर आकुल बुद्धिवाले होते हुए) तत्त्व से (शुद्धस्वरूप से) (अर्थात् सम्यग्दर्शन से) किसलिए च्युत होते हैं?' अर्थात् ऐसा सम्यक् स्वरूप है स्व-पर प्रकाशक का, जिसे अन्यथा समझने से/मानने से मिथ्यात्व का ही दोष आता है जो कि उसे अनन्त संसार का कारण होता है। श्लोक २२२- पूर्ण (अर्थात् एक भाग शुद्ध और दूसरा भाग अशुद्ध ऐसा नहीं परन्तु जो प्रमाण के विषयरूप पूर्ण आत्मा है, वही पूर्ण आत्मा द्रव्यदृष्टि से पूर्ण शुद्धरूप प्राप्त होता है), एक (अर्थात् उसमें कोई भाग नहीं अथवा भेद नहीं ऐसा), अच्युत और शुद्ध (अर्थात् प्रत्येक समय ऐसा का ऐसा शुद्धभाव से परिणमता, प्रगट होता अर्थात् विकाररहित) ऐसा ज्ञान जिसकी महिमा है (ज्ञान वह आत्मा का लक्षण होने से, आत्मा मात्र ज्ञान से ही ग्राह्य है और वही उसकी महिमा है) ऐसा यह ज्ञायक आत्मा (अर्थात् ज्ञान सामान्यरूप परमपारिणामिकभाव जो कि सर्व गुणों के अर्थात् द्रव्य के सहज परिणमनरूप शुद्धात्मा है वह-जाननेवाला है) वह (असमीपवर्ती) या इन (समीपवर्ती) ज्ञेय पदार्थों से (परपदार्थों को जानने से) जरा भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता, जैसे दीपक प्रकाश्य पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता उसी प्रकार (अर्थात् पर को जानने से आत्मा का जरा भी अनर्थ नहीं होता और दसरा ज्ञान सामान्यभाव पर को जाननेरूप क्षयोपशमभावरूप परिणमता है तथापि वह अपना ज्ञानसामान्यपना अर्थात् परमपारिणामिकभावपना नहीं छोड़ता अर्थात् वह कोई विक्रिया को प्राप्त नहीं होता अर्थात् वह परम अकर्ता ही रहता है, दर्पण के दृष्टान्त की भाँति प्रकाश्य पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता), तो फिर ऐसी वस्तुस्थिति के ज्ञान से रहित जिनकी बुद्धि है, ऐसे अज्ञानी जीव (अर्थात् जिन्हें यह बात नहीं जंचती कि जो भाव विशेष में पर को जानता है वही भाव सामान्यरूप से परमपारिणामिकभावरूप-सहज परिणमनरूप-शदात्मारूप-परमअकर्ताभाव है और वह पर को जानने से जरा भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता; ऐसे जीवों को अज्ञानी जीव मानना, ऐसे अज्ञानी जीव) अपनी सहज उदासीनता क्यों छोड़ते हैं (अर्थात् वे अज्ञानी जीव अपने परमपारिणामिकभावरूप-सहज परिणमनरूप

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