Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 180
________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 163 चेतनारूप, कारणशुद्धपर्यायरूप, कारणसमयसाररूप, चैतन्य अनुविधायी परिणामरूप, कारणपरमात्मारूप इत्यादि अनेक नामों से पहिचाना जाता है, ऐसा इस अधिकार में बतलाया है। ऐसे सर्व विशुद्ध (अर्थात् त्रिकाल विशुद्ध) भाव में जीव को 'मैंपना' अर्थात् ‘स्वपना' कराकर, स्वात्मानुभूति कराकर सम्यग्दर्शन प्राप्त कराना और इसी भाव में बारम्बार स्थिरता करने से वह जीव घातिकर्मों का नाश करके केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करे और पश्चात् आयुक्षय से मोक्ष प्राप्त करे अर्थात् सिद्ध हो अर्थात् सर्व-अर्थ-सिद्ध करे ऐसा सिद्धत्व दिलाना, यही इस शास्त्र का उद्देश्य है और इसीलिए यह एकमात्र शुद्धात्मा को ही इस शास्त्र में आत्मा कहा है और उसी भाव का प्रतिपादन पूर्ण शास्त्र में किया है; वह भाव अर्थात् ही सर्वविशुद्धज्ञान अर्थात् समयसार का सार। श्लोक १९३-'समस्त कर्ता-भोक्ता आदि भावों को सम्यक् प्रकार से नाश प्राप्त कराके (अर्थात् शुद्ध द्रव्यार्थिकनय से गौण करके अर्थात् आत्मा को द्रव्यदृष्टि से ग्रहण करके) पदपद पर (अर्थात् जीव की प्रत्येक पर्याय में अर्थात् जो कि द्रव्य है, उसका वर्तमान भाव अर्थात् अवस्था ही पर्याय कहलाती है और उस पर्याय को द्रव्यदृष्टि से देखने से-ग्रहण करने से ही उसमें रहे हुए विभावभावरूप अशुद्धि दृष्टि में आती ही न होने से सम्यक् प्रकार से नाश पाता है अर्थात् अत्यन्त गौण हो जाता है और उसमें छुपी हुई आत्मज्योति अर्थात् शुद्धात्मा अनुभव में आता है, वैसा भाव) बन्ध-मोक्ष की रचना से दूर वर्तता हुआ (अर्थात् त्रिकाल शुद्धरूपभाव-सामान्यभाव) शुद्ध-शुद्ध (अर्थात् जो रागादिक मल तथा आवरण-दोनों से रहित है ऐसा) जिसका पवित्र अचल तेज निज रस के (ज्ञानरस के, ज्ञान चेतनारूपी रस के) विस्तार से भरपूर है ऐसा और जिसकी महिमा टंकोत्कीर्ण (अर्थात् ऐसा का ऐसा ही उपजता होने से) प्रगट है ऐसा यह ज्ञानपुंज आत्मा प्रगट होता है (अर्थात् अनुभव में आता है)।' गाथा ३०८ गाथार्थ-'जो द्रव्य जिन गुणों से उत्पन्न होता है उन गुणों से उसे अनन्य जानो; जैसे जगत में कड़ा इत्यादि पर्यायों से सुवर्ण अनन्य है वैसे।' ___ अर्थात् जो पर्याय है वह द्रव्य की ही बनी हुई है अर्थात् पर्यायरूप विशेष भाव को गौण करते ही साक्षात् द्रव्य हाजिर ही है इसीलिए पर्यायदृष्टि में जो पर्याय है वही द्रव्यदृष्टि से मात्र द्रव्य ही है, वहाँ पर्याय अत्यन्त गौणरूप होने से ज्ञात ही नहीं होती; यही विधि है शुद्ध द्रव्य की प्राप्ति की।

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