Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 185
________________ 168 दृष्टि का विषय को गौण करते ही समयसाररूप = परमपारिणामिकभावरूप भाव की प्राप्ति होती है, सम्यग्दर्शन होता है अर्थात् वास्तव में तो 'पर का जानना, वह स्व में जाने की सीढ़ीरूप है' क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है अर्थात् प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है ) । १३..... ( यही भाव श्लोक १४३ में भी दर्शाया है कि सहज ज्ञान के परिणमन द्वारा परमपारिणामिकभाव द्वारा यह ज्ञानमात्र पद = समयसाररूप आत्मा कर्म से वास्तव में व्याप्त है ही नहीं, कर्म से जीता जा सके ऐसा है ही नहीं; इसलिए निज ज्ञान की कला के बल से=मतिज्ञानादिरूप- ज्ञेयाकाररूप परिणमन से इस पद को=समयसाररूप पद को=परम-पारिणामिकभावरूप पद को अभ्यास करने को जगत सतत् प्रयास करो। यहाँ आत्मा कार का जानना जो है, उसे सीढ़ीरूप से = आलम्बनरूप से प्रयोग करके समयसाररूप भगवान आत्मा की प्राप्ति के लिये प्रयास करने को = अभ्यास करने को कहा है) । और, जब यह ज्ञानमात्रभाव नित्य ज्ञान सामान्य का ग्रहण करने के लिये ( समयसाररूप परमपारिणामिकभाव के ग्रहण के लिये = सम्यग्दर्शन के लिये) अनित्य ज्ञान विशेषों के त्याग द्वारा अपना नाश करता है (अर्थात् ज्ञान के विशेषों का त्याग करते ही स्वयं अपने को नष्ट करता है)। तब (उस ज्ञानमात्रभाव का ) ज्ञान विशेषरूपी अनित्यपना प्रकाशित करता हुआ अनेकान्त ही उसे अपना नाश नहीं करने देता (अर्थात् ऐसा मानने पर कि 'आत्मा वास्तव में पर को जानता ही नहीं' तो ज्ञेयों के=अनित्यज्ञान के विशेषों के त्याग द्वारा अपना ही नाश होता है अर्थात् स्वयं भ्रमरूप परिणमता है अर्थात् स्वयं मिथ्यात्वरूप परिणमता है। दूसरा, ज्ञान विशेषरूप पर्यायें अर्थात् विभाव पर्यायों का त्याग करने पर भी ज्ञान का=अपना नाश होता है और स्वयं भ्रम में ही रहता है, इसलिए जिनागम में 'पर्यायरहित द्रव्य' के लिये ज्ञान विशेषों का त्याग नहीं अर्थात् विभाव पर्यायों का त्याग नहीं परन्तु उन्हें गौण करने का ही विधान है जो कि अनेकान्तस्वरूप आत्मा का नाश नहीं होने देता, मिथ्यात्वरूप परिणमने नहीं देता ) । १४..... ' श्लोक २५० ‘पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी, बाह्य पदार्थों को ग्रहण करने के (ज्ञान के) स्वभाव की अतिशयता के कारण (यहाँ बतलाया है कि आत्मा पर को जानता है, वह इसके स्वभाव की अतिशयता है), चारों ओर (सर्वत्र ) प्रगट होते अनेक प्रकार के ज्ञेयाकारों से जिसकी शक्ति विदीर्ण हो गयी है, ऐसा होकर समस्तरूप से टूट जाता हुआ (अर्थात् खण्डखण्ड अनेकरूप हो जाता हुआ अर्थात् अज्ञानी को खण्ड-खण्डरूप विशेष भावों में रहा हुआ ज्ञान सामान्यभाव ज्ञात नहीं होता = अखण्ड भाव ज्ञात नहीं होता इसलिए खण्ड-खण्डरूप विशेष

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