Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 192
________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ 175 ४० नित्य चिन्तन कणिकाएँ एक समकित पाये बिना, जप तप क्रिया फोक। जैसा मुर्दा सिनगारना, समझ कहे तिलोक।। अर्थात् – सम्यग्दर्शनरहित सर्व क्रिया-जप-तप-श्रावकपना, क्षुल्लकपना, साधुपना इत्यादि मुर्दे को शृंगारित करने जैसा निरर्थक है। यहाँ कहने का भावार्थ यह है कि ऐसे सम्यग्दर्शन के बिना क्रिया-तप-जप श्रावकपना, क्षुल्लकपना, साधुपना भव का अन्त करने में कार्यकारी नहीं है अर्थात् वे नहीं करना ऐसा नहीं, परन्तु उनमें ही सन्तुष्ट नहीं हो जाना अर्थात् उनसे ही अपने को कृतकृत्य न समझकर, सर्व प्रयत्न एकमात्र निश्चय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए ही करना। • भगवान के दर्शन किस प्रकार करना? भगवान के गुणों का चिन्तवन करना और भगवान, भगवान बनने के लिए जिस मार्ग में चले, उस मार्ग में चलने का दृढ़ निर्णय करना, वही सच्चे दर्शन हैं। • सम्पूर्ण संसार और सांसारिक सुख के प्रति वैराग्य के बिना अर्थात् संसार और सांसारिक सुखों की रुचिसहित मोक्षमार्ग की शुरुआत होना अत्यन्त दुर्लभ है अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। • जीव को चार संज्ञा/संस्कार-आहार, मैथुन, परिग्रह और भय अनादि से है; इसलिए उनके विचार सहज होते हैं। वैसे विचारों से जिन्हें छुटकारा चाहिए हो, उन्हें स्वयं की उनकी ओर की रुचि तलाशना अर्थात् जब तक ये संज्ञाएँ रुचती हैं अर्थात् इनमें सुख भासित होता है, जैसे कि कुत्ते को हड्डी चूसने को देने पर उसे वह तलवे में घिसने से खून निकलता है कि जिसे वह ऐसा समझता है कि खून हड्डी में से निकलता है और इसलिए उसे उसका आनन्द होता है कि जो मात्र उसका भ्रम ही है। इस प्रकार जब तक यह आहार, मैथुन, परिग्रह और भय अर्थात् बलवान का डर और कमजोर को डराना/ दबाना रुचता है, वहाँ तक उस जीव को उसके विचार सहज होते हैं और इसलिए उसके संसार का अन्त नहीं होता। इस कारण मोक्षेच्छु को इस अनादि के उल्टे संस्कारों को मूल से निकालने का पुरुषार्थ करनेयोग्य है जिसके लिए सर्व प्रथम इन संज्ञाओं के प्रति

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