Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 194
________________ नित्य चिन्तन कणिकाएँ प्राप्त होता ज्ञात होता है। इसलिए यह निश्चित होता है कि धन प्रयत्न की अपेक्षा पुण्य को अधिक वरते है। इसलिए जिसे धन के लिए मेहनत करना आवश्यक लगती हो, उन्हें भी अधिक में अधिक आधा समय अर्थोपार्जन में और कम से कम आधा समय तो धर्म में ही लगानायोग्य है। क्योंकि धर्म से अनन्त काल का दुःख मिटता है और साथ ही साथ पुण्य के कारण धन भी सहज ही प्राप्त होता है। जैसे गेहूँ बोने पर साथ में घास अपने-आप ही प्राप्त होती है, उसी प्रकार सत्य धर्म करने से पाप हल्के बनते हैं और पुण्य तीव्र बनते है, इसलिए भवकटी के साथ-साथ धन और सुख अपने आप ही प्राप्त होता है और भविष्य में अव्याबाध सुखरूप मुक्ति मिलती है। 177 • पुरुषार्थ से धर्म होता है और पुण्य से धन मिलता है। अर्थात् पूर्ण पुरुषार्थ धर्म में लगा और धन कमाने में कम से कम समय गँवाना । क्योंकि वह धन मेहनत के अनुपात में (Proportionate =प्रमाण) नहीं मिलता परन्तु पुण्य के अनुपात में मिलता है। • कर्मों का जो बन्ध होता है, उसके उदय काल में आत्मा के कैसे भाव होंगे अर्थात् उन कर्मों के उदय काल में नये कर्म कैसे बँधेंगे, उसे उस कर्म का अनुबन्ध कहते हैं; वह अनुबन्ध, अभिप्राय का फल है; इसलिए सर्व पुरुषार्थ अभिप्राय बदलने में लगाना अर्थात् अभिप्राय को सम्यक् करने में लगाना । • स्वरूप से मैं सिद्धसम होने पर भी, राग-द्वेष मेरे कलंक समान हैं, इसिलए उन्हें धोने के (मिटाने के ) ध्येयपूर्वक धगश और धैर्य सहित धर्म पुरुषार्थ आदरना। • सन्तोष, सरलता, सादगी, समता, सहिष्णुता, सहनशीलता, नम्रता, लघुता, विवेक, आत्मप्राप्ति की योग्यता के लिये जीवन में अभ्यासना अत्यन्त आवश्यक है। तपस्या में नववाड़ विशुद्ध ब्रह्मचर्य अति श्रेष्ठ है। • सांसारिक जीव निमित्तवासी होते हैं, कार्यरूप तो नियम से उपादान ही परिणमता है परन्तु उस उपादान में कार्य हो, तब निमित्त की उपस्थिति अविनाभावी होती ही है; इसीलिए विवेक से मुमुक्षु जीव समझता है कि कार्य भले मात्र उपादान में हो परन्तु इस कारण उन्हें स्वच्छन्द से किसी भी निमित्त सेवन का परवाना नहीं मिल जाता और इसीलिए भी वे निर्बल निमित्तों से भीरुभाव से दूर ही रहते हैं । साधक आत्मा को टीवी, सिनेमा, नाटक, मोबाइल, इंटरनेट इत्यादि जैसे कमजोर

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