Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 186
________________ समयसार के परिशिष्ट में से अनेकान्त का स्वरूप 169 भावों का निषेध करता है, क्योंकि वह उनसे अखण्ड ज्ञान का सामान्य ज्ञान का नाश मानता है ऐसा स्वयं) नाश को प्राप्त होता है (अर्थात् अज्ञान को प्राप्त होता है अर्थात् अनेक ज्ञेयों के आकार ज्ञान में ज्ञात होने से ज्ञान की शक्ति को छिन्न-भिन्न खण्ड-खण्डरूप हो जाता मानकर अर्थात् अज्ञानी ऐसा कहता है कि जहाँ तक आत्मा पर को जानता है, ऐसा मानने में आवे, वहाँ तक सम्यग्दर्शन नहीं होगा समयसाररूप आत्मा प्राप्त नहीं होगा और इसीलिए एकान्त से ऐसी प्ररूपणा करता है कि आत्मा वास्तव में पर को जानता ही नहीं ऐसे लोगों को यहाँ पशु अर्थात् सर्वथा एकान्तवादी अज्ञानी कहा है)। और अनेकान्त का जाननेवाला तो (ज्ञानी=सम्यग्दर्शनी), सदा उदित (प्रकाशमान =ज्ञान सामान्यभाव=परम-पारिणामिकभाव समयसाररूपभाव) एक द्रव्यपने के कारण (खण्ड-खण्डरूप भासित होते ज्ञान में छुपे हुए अखण्ड ज्ञान की अनुभूति के कारण) भेद के भ्रम को नष्ट करता हुआ (अर्थात् ज्ञेयों के भेद से ज्ञान में सर्वथा भेद पड़ जाता है, ऐसे भ्रम को नाश करता हुआ-अर्थात् यदि ज्ञान को पर का जानपना मानेंगे तो सम्यग्दर्शन नहीं होगा, ऐसे भ्रम का नाश करता हआ) जो एक है और जिसका अनुभवन (समयसाररूप= परमपारिणामिकभावरूप=ज्ञान सामान्यरूप एक अभेद आत्मा) निर्बाध है, ऐसे ज्ञान को देखता है-अनुभव करता है।' ऐसा है जैनशासन का अनेकान्तमय ज्ञान। श्लोक २६१ भावार्थ- 'एकान्तवादी ज्ञान को सर्वथा एकाकार-नित्य प्राप्त करने की वाँछा से उत्पन्न होनेवाली और नाश होनेवाली चैतन्यपरिणति से पृथक् कुछ ज्ञान को चाहता है (जैसे कि पर को जानने का निषेध करके अथवा तो पर्याय का दृष्टि के विषय में निषेध करके); परन्तु परिणाम (पर्याय =ज्ञेय) के अतिरिक्त दूसरा कोई पृथक् परिणामी नहीं होता (इस कारण से ज्ञेय अथवा पर्याय को निकालने से पूर्ण द्रव्यों का ही लोप होता है कि जिससे परिणामी हाथ नहीं आता सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता परन्तु मात्र भ्रम का ही साम्राज्य फैलता है)। स्याद्वादी तो ऐसा मानता है कि यद्यपि द्रव्यापेक्षा ज्ञान नित्य है तथापि क्रमश: उत्पन्न होनेवाली और नष्ट होनेवाली चैतन्य परिणति के क्रम के कारण ज्ञान अनित्य भी है (अर्थात् ज्ञान सामान्य, नित्य है कि जिसका ज्ञान विशेष बना हआ है कि जो अनित्य है) ऐसा ही वस्त स्वभाव है।' यह बात सर्व जनों को सम्यग्दर्शन के लिये स्वीकार करना अत्यन्त आवश्यक है। श्लोक २६२-'इस प्रकार अनेकान्त अर्थात् स्याद्वाद अज्ञानमूढ़ प्राणियों को ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व प्रसिद्ध करता हुआ स्वयमेव अनुभव में आता है।' श्लोक २६५ भावार्थ-'जो सत्पुरुष अनेकान्त के साथ सुसंगत दृष्टि के द्वारा अनेकान्तमय

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