Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 187
________________ दृष्टि का विषय वस्तुस्थिति को देखते हैं, वे इस प्रकार स्याद्वाद की शुद्धि को प्राप्त करके जान करके जिनदेव के मार्ग को-स्याद्वादन्याय को उल्लंघन न करते हुए, ज्ञानस्वरूप होते हैं।' अर्थात् सम्यग्दर्शन होता है। 170 श्लोक २७०-“अनेक प्रकार की निज शक्तियों का समुदायमय यह आत्मा नयों की दृष्टि से खण्ड-खण्डरूप किये जाने पर तत्काल नाश को प्राप्त होता है (यदि किसी भी नय को एकान्त से ग्रहण किया जाये अथवा किसी भी नय की एकान्त प्ररूपणा की जाये अथवा किसी भी नय का एकान्त पक्ष किया जाये तो आत्मा खण्ड-खण्डरूप होने से तत्काल नाश को प्राप्त होता है अर्थात् मिथ्यात्वी होता है और अनन्त संसार बढ़ाता है) इसलिए मैं ऐसा अनुभव करता हूँ कि जिसमें से खण्डों को निराकृत (बहिष्कृत) नहीं किया गया है (अर्थात् कि वह खण्ड-खण्डरूप ज्ञेय हो या विभावपर्याय हो उसे आत्मा दूर नहीं करना) तथापि जो अखण्ड है, एक है, एकान्त शान्त है (अर्थात् कि खण्ड-खण्डरूप विशेष भाव में अखण्ड सामान्यभाव रहा हुआ है, छुपा हुआ है, इसलिए खण्ड-खण्ड भाव का निषेध नहीं, उसे गौण करते ही अखण्ड भाव प्राप्त होता है)। (अर्थात् कर्म के उदय का लेश भी नहीं, ऐसे अत्यन्त शान्त भावमय है, परमपारिणामिकभावमय है) और अचल है (अर्थात् कर्म के उदय से चलाया चलता नहीं) ऐसा चैतन्यमात्र वही ‘मैं हूँ।” ऐसी है सम्यग्दर्शन के विषय को प्राप्त करने की विधि । श्लोक २७१ भावार्थ- 'ज्ञानमात्रभाव (परमपारिणामिकभाव) जाननक्रियारूप होने से ज्ञानस्वरूप है (यहाँ समझना ऐसा है कि जो अज्ञानी हैं और जिन्हें आत्म प्राप्ति की तड़प भी है, उन्हें ज्ञान जो कि आत्मा का लक्षण है, जो कि स्व-पर को जानता है, उसका सीढ़ीरूप से उपयोग करके आत्मा के ज्ञानमात्रस्वरूप की प्राप्ति करना अर्थात् जो ज्ञेय को जानता है, वह जाननेवाला, वही मैं हूँ - ऐसा चिन्तवन करना और उस जाननक्रिया के समय ही ज्ञेय को गौण करते ही ; निषेध करते नहीं-यह याद रखना; सामान्य ज्ञानरूप - ज्ञानमात्रभाव की प्राप्ति होती है) और वह स्वयं ही निम्नानुसार ज्ञेयरूप है (ज्ञेय है वह ज्ञान ही है - और ज्ञान है वह ज्ञायक ही है । तो पर को जान का=ज्ञेय को जानने का निषेध करने से ज्ञान का निषेध होता है =ज्ञानमात्रभाव के अभाव का प्रसंग आता है) बाह्य ज्ञेय ज्ञान से भिन्न है, वे ज्ञान में प्रविष्ट नहीं होते; ज्ञेयों के आकार की झलक ज्ञान में आने पर ज्ञान ज्ञेयाकाररूप दिखायी देता है परन्तु वे ज्ञान की ही कल्लोलें (तरंगें ) हैं। (जबकि ज्ञेय को जानने का निषेध करने से ज्ञान कल्लोलों का ही निषेध होता है जो कि स्वयं ज्ञानमात्र स्वयं ही है । इसलिए ज्ञेय को जानने का निषेध करते ही ज्ञानमात्र भाव के अभाव

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