Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 181
________________ 164 दृष्टि का विषय ___गाथा ३०९ गाथार्थ-'जीव और अजीव के जो परिणाम सूत्र में बताये हैं, उन परिणामों से उस जीव अथवा अजीव को अनन्य जानो।' यही कारण है कि दृष्टि का विषय जो कि पर्याय से रहित द्रव्य कहलाता है, उसे प्राप्त करने की विधि गाथा २९४ में प्रज्ञारूप छैनी भगवती प्रज्ञा=ज्ञानस्वरूप बुद्धि-तत्त्व के निर्णयसहित की बुद्धि कही है। इस कारण से विभावरूप भाव को गौण करते ही शुद्धनयरूप समयसाररूप आत्मा प्राप्त होता है। गाथा ३१८ गाथार्थ-'निर्वेद प्राप्त (वैराग्य को प्राप्त) ज्ञानी मधुर-कड़वे (सुख-दुःखरूप) बहुविध कर्मफल को जानता है इसलिए वह अवेदक है।' अर्थात् उसे कर्म नोकर्म और उसके आश्रय से होनेवाले भावों में मैंपना' नहीं होने से अर्थात् उन भावों से अपने को भिन्न अनुभव करता होने से उन विशेष भावों को अर्थात् सुख-दुःख को जानता है, तथापि अवेदक है। श्लोक २०५-'इस अरहंत मत के अनुयायियों अर्थात् जैनों भी आत्मा को, सांख्यमतियों की भाँति (सर्वथा) अकर्ता न मानो; भेदज्ञान होने से पहले उसे (अर्थात् मिथ्यादृष्टि को) निरन्तर कर्ता मानो, और भेदज्ञान होने के बाद (अर्थात् सम्यग्दृष्टि को) उद्यत ज्ञानधाम में निश्चित ऐसे (अर्थात मात्र सामान्यज्ञान में स्थित ऐसे) इस स्वयं प्रत्यक्ष आत्मा को कर्तापने रहित, अचल, एक परम ज्ञाता ही देखो।' अर्थात् ज्ञान सामान्यरूप शुद्धात्मा मात्र ज्ञाता ही है, वह सामान्य भाव परम अकर्ता है परन्तु जिसे उस भाव का अनुभव नहीं, ऐसा अज्ञानी यदि अपने को अकर्ता माने तो वह एकान्त पाखण्डमतरूप सांख्यमति जैसा होता है जो कि अनन्त संसार का कारण होता है। गाथा ३५६ गाथार्थ-'जैसे खड़िया पर की नहीं है, खड़िया तो खड़िया ही है, वैसे ज्ञायक (जाननहार आत्मा) पर का नहीं है (ज्ञायक अर्थात् जाननेवाला होने पर भी स्व-पर को जानने का स्वभाव होने पर भी वह पररूप से परिणमकर जानता नहीं होने से वह पर का नहीं है, परन्तु स्व-पर को जानना वह तो 'स्व' का ही परिणमन है) ज्ञायक (स्व-पर जो जाननेवाला) वह तो ज्ञायक ही है (प्रतिबिम्ब को गौण करने पर मात्र परमपारिणामिकभावरूप ज्ञायक ही है)।' __श्लोक २१५-‘जिसने शुद्ध द्रव्य के निरूपण में बुद्धि को स्थापित किया है-लगाया है और जो तत्त्व को अनुभव करता है (अर्थात् जो सम्यग्दृष्टि है) उस पुरुष को एक द्रव्य के भीतर कोई भी अन्य द्रव्य रहता हुआ बिलकुल (कदापि) भासित नहीं होता। (जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब होने पर भी ज्ञानी दर्पण में कोई अन्य पदार्थ जो कि प्रतिबिम्बरूप है वह उसमें घुस गया हुआ नहीं जानता अर्थात् ज्ञानी उसे दर्पण का ही प्रतिबिम्ब जानता है अर्थात् वहाँ प्रतिबिम्ब को गौण

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