Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 176
________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 159 दूसरा ज्ञानी को विवेक जागृत हुआ होने से, जैसे वैद्य जहर खाने पर भी मरता नहीं, वैसे ज्ञानी भी विवेकपूर्वक अपने बल की कमी के कारण अर्थात् अपनी कमजोरी के कारण भोगभोगते हुए भी, उसे बहुत ही अल्प बन्ध होने से, उसे बन्ध नहीं है ऐसा कहा जाता है अर्थात् ज्ञानी को राग में और बन्ध के अन्य कारणों में 'मैंपना' नहीं होता और स्वयं बन्धरूप भी स्वेच्छा से परिणमित नहीं होता इसलिए इन दोनों अपेक्षाओं से उसे बन्ध नहीं है ऐसा कहा जाता है। तीसरा भेदज्ञान कराने को और सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने को एकमात्र शुद्धात्मा का ही शरण लेना होने से, जो कि दृष्टि के विषयरूप शुद्धात्मा में बन्ध का सदा अभाव ही है, वही इस अधिकार का सार है। गाथा २७८-२७९ गाथार्थ-'जैसे स्फटिक मणि शुद्ध होने से (अर्थात् ज्ञानी जिसमें 'मैंपना' करता है वह शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से) रागादिरूप से (लालिमा आदिरूप से) अपने आप नहीं परिणमता (अर्थात् ज्ञानी स्वेच्छा से रागरूप नहीं परिणमता अर्थात् इच्छापूर्वक राग नहीं करता) परन्तु अन्य रक्त आदि द्रव्यों द्वारा वह रक्त (लाल) आदि किया जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी अर्थात् (शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करते हुए) आत्मा शुद्ध होने से (अर्थात् शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से) रागादिरूप अपने आप नहीं परिणमता परन्तु अन्य रागादि दोषों द्वारा (अर्थात् उसके योग्य ऐसे कर्म के उदय के निमित्त कारण से) वह रागी आदि किया जाता है (अर्थात् वह अपनी कमजोरी के कारण रागी-द्वेषी होता है अर्थात् राग-द्वेषरूप परिणमता है)।' श्लोक १७५ - ‘सूर्यकान्त मणि की भाँति (अर्थात् जैसे सूर्यकान्त मणि स्वयं से ही अग्निरूप नहीं परिणमती, उसके अग्निरूप परिणमन में सूर्य का बिम्ब निमित्त है, उसी प्रकार) आत्मा स्वयं को रागादि का निमित्त कभी भी नहीं होता (अर्थात् शुद्धात्मा स्वयं शुद्ध होने से, रागादिरूप अपने आप कभी नहीं परिणमता), उसमें निमित्त परसंग ही (परद्रव्य का संग ही) है-ऐसा वस्तुस्वभाव प्रकाशमान है (सदा वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है, किसी ने किया नहीं है)।' अर्थात् आपने पूर्व में जो ‘निमित्त-उपादान' की चर्चा में देखा कि विवेकी मुमुक्षु निर्बल निमित्तों को तजता है अर्थात् उनसे दूर ही रहता है क्योंकि वह जानता है कि वस्तु का ऐसा ही स्वभाव है कि खराब निमित्त से उसका पतन हो सकता है; ऐसा है अनेकान्तवाद जैन सिद्धान्त का। अर्थात् कोई निमित्त को एकान्त से अकर्ता माने और ऐसा ही प्ररूपण करे तो वह जिनमत बाह्य ही है अर्थात् वह अपने और अन्य अनेकों के पतन का कारण है, यही बात इस श्लोक

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