Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 150
________________ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 133 गाथा ३ गाथार्थ-‘एकत्व निश्चय को प्राप्त जो समय है (अर्थात् जिसने मात्र शुद्धात्मा में ही 'मैपना' करके सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, वैसा आत्मा) इस लोक में सर्वत्र सुन्दर है (अर्थात् वैसा जीव भले नरक में हो या स्वर्ग में हो अर्थात् दुःख में हो या सुख में हो परन्तु वह सुन्दर अर्थात् स्व में स्थित है) इसलिए एकत्व में दूसरे के साथ बन्ध की कथा (अर्थात् बन्धरूप विभावभावों में 'मैंपना' करते ही मिथ्यात्व का उदय होने से) विसंवाद-विरोध करनेवाली (अर्थात् संसार में अनन्त दुःखरूप फल देनेवाली) है।' और दूसरा, जो आत्मद्रव्य अन्य कर्म-नोकर्मरूप पुद्गल द्रव्य के साथ बंधकर रहा है उसमें विसंवाद है अर्थात् दुःख है, जब वही आत्मद्रव्य उस पुद्गलद्रव्य के साथ के बन्धन से मुक्त होता है, तब वह सुन्दर है अर्थात् आव्याबाध सुखी है। ___ गाथा ४ गाथार्थ-‘सर्व लोक को काम-भोग सम्बन्धी बंध की कथा तो सुनने में आ गयी है (अर्थात् संसारीजन उसमें तो बहुत ही होशियार होते ही हैं), परिचय में आ गयी है और अनुभव में भी आ गयी है (अर्थात् दूसरों को वैसा करते देखा है और स्वयं भी उस रूप परिणमकर अनुभव किया है) इसलिए सुलभ है (अर्थात् वह उसे बराबर समझते हैं और उसे ही एकमात्र जीव के लक्ष्यरूप मानकर, उसके पीछे ही दौड़ते हैं); परन्तु भिन्न आत्मा का (अर्थात् भेदज्ञान से प्राप्त शुद्धात्मा का) एकपना होना कभी सुना नहीं (अर्थात् उसमें ही 'मैंपना' =एकत्व प्राप्त करनेयोग्य है, ऐसा कभी सुना ही नहीं). परिचय में आया नहीं (अर्थात बात में अथवा पढने में अथवा उपदेश में आया नहीं), और अनुभव में भी आया नहीं (इसलिए उसे अनुभव भी नहीं किया अर्थात् स्वात्मानुभूति भी नहीं हुई) इसलिए एक वह सुलभ नहीं है।' पाँच इन्द्रियों के जो विषय हैं, उनमें से शब्द और रूप को काम कहा जाता है तथा गन्ध, रस और स्पर्श को भोग कहा जाता है। पाँचों मिलकर काम-भोग कहलाते हैं, जिसके विषय में बहुभाग लोगों को रस होने से (कि जिसमें रस रखने योग्य नहीं है) उनकी कथा सुलभ है परन्तु इस काल में शुद्धात्मा की बात अति दुर्लभ है जो कि हम यहाँ (समयसार में) बतलानेवाले हैं, ऐसा भाव है आचार्य भगवन्त का इस गाथा में। गाथा ५ गाथार्थ-‘वह एकत्व-विभक्त (अर्थात् अभेदरूप और भेदरूप) आत्मा को मैं आत्मा के निज वैभव से दिखाता हूँ; (अर्थात् बतलाता हूँ), यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण (स्वीकार) करना और यदि कहीं चूक जाऊँ तो छल (अर्थात् उल्टा-विपरीत-नुकसानकारक) ग्रहण नहीं करना।' अर्थात् इस शास्त्र से स्वच्छन्द ग्रहण करके तुम ठगा जाओ, वैसा मत करना, क्योंकि वह स्वच्छन्द अनन्त संसार का कारण है, ऐसा आचार्य भगवन्त ने इस गाथा में बतलाया है।

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