Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 158
________________ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 141 और मोक्ष प्राप्त करने के लिए बतलाया है, नहीं कि छठे गुणस्थानक में सहज होनेवाले शुभ का निषेध करके नीचे गिराने को-अर्थात् अविरति अथवा अज्ञानी होने को। इसलिए सर्व मुमुक्षुजनों को यह बात यथार्थ 'जैसा है वैसा' समझना अत्यन्त आवश्यक है, अर्थात् समझना यह है कि अहोभाव मात्र-मात्र शुद्धता का ही होना चाहिए, शुभ का नहीं ही, परन्तु जब तक शुद्धरूप नहीं परिणमता तब तक रहना तो नियम से शुभ में ही। श्लोक ४-‘निश्चय और व्यवहार-इन दो नयों को विषय के भेद से परस्पर विरोध है, उस विरोध को नाश करनेवाला ‘स्यात्' पद से चिह्नित जो जिन भगवान का वचन, (वाणी) उसमें जो पुरुष रमते हैं (प्रचुर प्रीतिसहित अभ्यास करते हैं अर्थात् दोनों नयों का पक्ष छोड़कर मध्यस्थ रहते हैं) वे पुरुष अपने आप (अन्य कारण बिना) मिथ्यात्वकर्म के उदय का वमन करके इस अतिशयरूप परम ज्योति प्रकाशमान शुद्ध आत्मा को तुरन्त देखते ही हैं। (अर्थात् कौन देखते हैं? तो कहते हैं कि ‘स्यात्' वचनों में रमता पुरुष, नहीं कि एकान्त का आग्रही पुरुष अर्थात् सम्यग्दर्शन जो कि सम्यक् एकान्तरूप होने पर भी आग्रह तो एकान्त का होता ही नहीं, प्ररूपणा एकान्त की होती ही नहीं। प्ररूपणा जैसा है वैसा स्यात् वचनरूप ही होती है)। कैसा है समयसाररूप शुद्धात्मा? नवीन उत्पन्न नहीं हुआ, पहले कर्म से आच्छादित था, वह प्रगट व्यक्तिरूप हो गया (अर्थात् पहले जो अज्ञानी को उदय-क्षयोपशमरूप से अनुभव में आता था, वही अब ज्ञानी को उदय-क्षयोपशमभाव गौण हो जाने पर करते ही समयसाररूप= परमपारिणामिकभावरूप =परमज्योतिरूप प्रगट होता है ज्ञात होता है अनुभव में आता है व्यक्तिरूप होता है) और कैसा है? सर्वथा एकान्तरूप कुनय के पक्ष से खण्डित नहीं होता, निर्बाध है (अर्थात् जो सम्यग्दर्शन के लिये सर्वथा एकान्त नय की प्ररूपणा में रचते हैं, उन्हें शुद्धात्मा कभी प्राप्त ही नहीं होता, ऐसा ही यहाँ बतलाया है)। श्लोक ५-गाथा ११ और १२ को ही दृढ़ कराता है जो कि भेदरूप व्यवहारनय है वह अज्ञानी को मात्र समझाने के लिये है परन्तु वैसे भेदरूप आत्मा है नहीं इसलिए आश्रय तो अभेदरूप आत्मा का शुद्धात्मा का, कि जिसमें परद्रव्यों से होनेवाले भावों को गौण किया है, उसी का करना है। वह आत्मा ही उपादेय है अर्थात् द्रव्यपर्यायरूप भेद अथवा पर्याय के निषेधरूप भेद का जो आश्रय करते हैं, उन्हें अभेद आत्मा का अणसार भी नहीं आता। अर्थात् वे भेद में ही रमते हैं अर्थात् वे विकल्प में ही रमते हैं और भेद का ही आदर करते हैं क्योंकि उन्हें निषेध बिना का दृष्टि का विषय ही मान्य नहीं होता है, ऐसी है करुणाजनक परिस्थिति।

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