Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 159
________________ 142 दृष्टि का विषय श्लोक ६-यहाँ आचार्य भगवान बतलाते हैं कि जो नौ तत्त्व की परिपाटी है उसे छोड़कर अर्थात् गौण करके देखने पर - उस भाव को अनुभवते ही आत्मा प्राप्त होता है। __श्लोक ७ में आचार्य भगवन्त गाथा १३ का ही भाव व्यक्त करते हैं कि नव तत्त्व में व्याप्त ऐसी आत्म ज्योति (अर्थात परमपारिणामिकभाव) नव तत्त्वों को गौण करते ही एक अखण्ड आत्म ज्योति (अर्थात् परमपारिणामिकभाव) प्राप्त होता है। गाथा १३ गाथार्थ-'भूतार्थनय से जाने हुए (अर्थात् अभेद ऐसे शुद्धनय से जाने हुए) जीव, अजीव और पुण्य, पाप तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध, और मोक्ष - ये नव तत्त्व सम्यक् हैं।' अर्थात् अभेद ऐसे शुद्धनय से जो ऐसा जानता है कि यह सर्व नव तत्त्वरूप परिणमित जीव विशेष अपेक्षा से नव तत्त्वरूप भासित होता है, परन्तु अभेद शुद्धनय द्वारा ये नव तत्त्व जिसके बने हुए हैं, वह एकमात्र सामान्यभावरूप अर्थात् अभेद शुद्ध जीवत्वभावरूप शुद्धात्मा' ही है और इसी प्रकार जो नव तत्त्व को जानता है, उसे ही सम्यग्दर्शन है अर्थात् वही सम्यक्त्व है; यह गाथा समयसार के साररूप है। सर्व अधिकारों का उल्लेख इस गाथा में करके सर्व अधिकारों के साररूप से सम्यग्दर्शनरूप आत्मा का स्वरूप समझाया है। ___ गाथा १३ टीका-'ये जीवादि नव तत्त्व भूतार्थनय से जाने हुए सम्यग्दर्शन ही हैं (यह नियम कहा)। (भूतार्थनय से अर्थात् अभेदनय से इन जीवादि नव तत्त्वोंरूप से आत्मा ही परिणमता है, इसलिए इन नव तत्त्वों को गौण करते ही शुद्धात्मा की प्राप्ति होती है सम्यग्दर्शन होता है); क्योंकि तीर्थ की (व्यवहारधर्म की) प्रवृत्ति के लिये अभूतार्थ (व्यवहार)नय से (ये नव तत्त्व) कहने में आते हैं (अर्थात् जो जीव अपरमभाव में स्थित है-अज्ञानी है, उसे म्लेच्छ की भाषा में अर्थात् आगम की भाषा में जीव को उदय-उपशम-क्षयोपशम-क्षायिक-पारिणामिक - ऐसे पाँचभावरूप से प्ररूपित किया जाता है) ऐसे ये नव तत्त्व-जिनके लक्षण जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष है - उनमें एकपना प्रगट करनेवाले भूतार्थनय से एकपना प्राप्त करके (अर्थात् उन सर्व तत्त्वोंरूप जो आत्मा परिणमित है, वह बाह्य निमित्त के भाव अथवा अभाव से परिणमित है, उन नव तत्त्वोंरूप परिणमित ऐसे आत्मा में विशेष भावों को गौण करते ही, एक अभेद ऐसा सहज परिणमनरूप आत्मा जो कि परमपारिणामिकभावरूप है-समयसाररूप है, वह प्राप्त होता है, उसे प्राप्त करते ही), शुद्धनयरूप से स्थापित आत्मा की अनुभूति - कि जिसका लक्षण आत्मख्याति है-उसकी प्राप्ति होती है (अर्थात् सम्यग्दर्शनरूपसमयसाररूप आत्मा की प्राप्ति होती है)। (अर्थात् शुद्धनय से नौ तत्त्व को जानने से आत्मा की

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