Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 148
________________ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय 131 ३६ समयसार अनुसार सम्यग्दर्शन का विषय श्री समयसार पूर्वरंग, गाथा २ गाथार्थ-'हे भव्य! जो जीव दर्शन-ज्ञान-चारित्र में स्थित हो रहा है, उसे निश्चय से स्वसमय जान (अर्थात् जो दर्शन-ज्ञान-चारित्र और अनन्त गुणों के सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभाव में ही 'मैंपना' स्थापित करके उसमें ही स्थित हुआ है उसे स्वसमय अर्थात् सम्यग्दृष्टि जान); और जो जीव पुद्गल कर्मों के प्रदेशों में स्थित है उसे परसमय (अर्थात् जो विभावभावसहित के जीव में 'मैंपना' करते हैं उसे मिथ्यात्वी जीव) जान।' यहाँ समझना यह है कि दर्पण के दृष्टान्त से जैसे दर्पण के स्वच्छत्वरूप परिणमन में जो 'मैंपना' करता है वह स्वसमय अर्थात् प्रतिबिम्ब को गौण करके मात्र दर्पण को जानना-जैसे कि आत्मा के सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभाव ज्ञानसामान्यभाव=निष्क्रियभाव में प्रतिबिम्बरूप से बाकी के चार भाव रहे हुए हैं तो उन चार भावों को गौण करके मात्र स्वच्छत्वरूप परमपारिणामिकभाव स्वसमय में ही 'मैंपना' करना। ऐसा किस प्रकार हो सकता है? तो उसकी विधि आचार्य भगवन्त ने गाथा ११ में कतक फलरूप बुद्धि से ऐसा हो सकता है, यह बतलाया है और गाथा २९४ में प्रज्ञाछैनी द्वारा यही प्रक्रिया करने को बतलाया है। यहाँ समझना यह है कि पर्यायरहित का द्रव्य अर्थात् आत्मा के चार भावों को गौण करके रहित करके पंचम भावरूप द्रव्य की प्राप्ति जो कि कतक फलरूप बुद्धि से अथवा प्रज्ञारूपी छैनी से ही हो सकती है, अन्यथा नहीं। आचार्य भगवन्त ने कोई भौतिक छैनी से जीव में भेदज्ञान करने को नहीं कहा है क्योंकि जीव एक अभेद-अखण्ड-ज्ञानघनरूप द्रव्य है। इसलिए वह पर्यायरहित का द्रव्य प्राप्त करने के लिये प्रज्ञाछैनीरूप बुद्धि से चार भाव को गौण करके शेष रहे हुए एक भाव जो कि परमपारिणामिकभावरूप है जो कि सदा ऐसा का ऐसा ही उपजता है, उसमें मैंपना' करने को कहा है, उसे ही ‘स्वसमय' कहा है कि जिसे जानते ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। गाथा २ टीका-आचार्य भगवन्त टीका में बतलाते हैं कि ....यह जीव पदार्थ कैसा है? सदा ही परिणामस्वरूप स्वभाव में रहा हुआ होने से (परमपारिणामिकभावरूप होने से) उत्पादव्यय-ध्रौव्य की एकतारूप अनुभूति (अर्थात् अनुभूति अभेद द्रव्य की ही होती है अर्थात् अनुभूतिरूप भगवान आत्मा जीवराजा=द्रव्य-पर्याय की एकतारूप होता है। क्योंकि पर्याय न हो तो वह द्रव्य ही न हो अर्थात् कि भौतिक छैनी से पर्याय को न निकालकर, प्रज्ञाछैनी से परभावरूप

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