Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

View full book text
Previous | Next

Page 139
________________ 122 दृष्टि का विषय उत्तम स्वात्म चिन्तन (निजात्मानुभवन) होता है, और वह (निजात्मानुभवनरूप) आवश्यक कर्म उसे मुक्ति सौख्य का (सिद्धत्व का) कारण होता है।' गाथा १५१ अन्वयार्थ-'जो धर्मध्यान और शुक्लध्यान में परिणत है वह भी अन्तरात्मा है, ध्यानविहीन (अर्थात् इन दोनों ध्यानविहीन) श्रमण बहिरात्मा है, ऐसा जान।' । गाथा १५४ अन्वयार्थ-'यदि किया जा सके तो अहो! ध्यानमय (स्वात्मानुभूतिरूप शुद्धात्मा के ध्यानमय) प्रतिक्रमणादि कर ; यदि तू शक्तिविहीन हो (अर्थात् यदि तुझे सम्यग्दर्शन हुआ न हो और इस कारण से शुद्धात्मानुभूतिरूप ध्यान करने की शक्तिविहीन हो) तो वहाँ तक (अर्थात् जब तक सम्यग्दर्शन न हो तब तक) श्रद्धान ही (अर्थात् यहाँ बतलायी तत्त्व की उसी प्रकार से श्रद्धा) कर्तव्य (अर्थात् करने योग्य) है।' श्लोक २६४-‘असार संसार में, पाप से भरपूर कलिकाल का विलास होने पर, इस निर्दोष जिननाथ के मार्ग में मुक्ति नहीं है, इसलिए इस काल में अध्यात्मध्यान कैसे हो सकता है? इसलिए निर्मल बुद्धिवाले भवभय का नाश करनेवाली ऐसी इस (ऊपर बतलाये अनुसार की) निजात्मश्रद्धा को अंगीकृत करते हैं।' अर्थात् इस काल में सम्यग्दर्शन अत्यन्त दुर्लभ होने से अपने आत्मा की यहाँ बतलाये अनुसार श्रद्धा परम कर्तव्य है अर्थात् वही कार्यकारी सच्ची भक्ति है। गाथा १५६ अन्वयार्थ-'नाना प्रकार के (अलग-अलग अनेक प्रकार के) जीव हैं। नाना प्रकार का कर्म है, नाना प्रकार की लब्धि है, इसलिए स्वसमयों (स्वधर्मियों) और परसमयों (परधर्मियों) के साथ वचन विवाद वर्जन योग्य है।' अर्थात् तत्त्व के लिये कुछ भी वाद-विवाद, वैर विरोध, झगड़ा कभी भी करने योग्य नहीं है क्योंकि उससे तत्त्व की ही पराजय होती है अर्थात् धर्म ही लजाता है और दोनों पक्षों को कुछ भी धर्म प्राप्ति नहीं होती, इसलिए उसमें वाद-विवाद, वैर-विरोध, झगड़ा तजनेयोग्य ही है। श्लोक २७१-'हेयरूप ऐसा जो कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह, उसे छोड़कर (अर्थात् मुमुक्षु जीव को आत्मप्राप्ति के लिये यह मोह छोड़नेयोग्य है), हे चित्त (अर्थात् चेतन)! निर्मल सुख के लिये (अर्थात् अतीन्द्रिय सुख के लिये) परम गुरु द्वारा धर्म को प्राप्त करके तू अव्यग्ररूप (शान्तस्वरूपी) परमात्मा में (अर्थात् निर्विकल्प परमपारिणामिकभावरूप त्रिकाली शुद्ध आत्मा में) कि जो (परमात्मा-शुद्धात्मा) नित्य आनन्दवाला है, निरुपम गुणों से अलंकृत है और दिव्यज्ञानवाला (अर्थात् शुद्ध सामान्य ज्ञानवाला शुद्धात्मा) है उसमें - शीघ्र प्रवेश कर।' अर्थात् सर्व मुमुक्षु जीवों को कनक और कामिनी सम्बन्धी मोह छोड़कर शुद्धात्मा में ही शीघ्र ‘मैंपना' करके उसकी ही

Loading...

Page Navigation
1 ... 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202