Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 131
________________ 114 दृष्टि का विषय अवस्था को प्रगट किया है (अर्थात् सर्व गुणों की साक्षात् शुद्धदशा प्रगट की है)।' यही विधि है सिद्धत्व की प्राप्ति की। श्लोक १६७-‘शुभ और अशुभ से रहित शुद्ध चैतन्य की भावना (अर्थात् विभावभावरहित शुद्धात्मा अर्थात् परमपारिणामिकभाव की ही भावना कि जो भाव श्री समयसार गाथा ६ में कहे अनुसार प्रमत्त भी नहीं और अप्रमत्त भी नहीं मात्र एक ज्ञायकभाव है) मेरे अनादि संसार रोग का उत्तम औषध है।' अर्थात् जो निर्विकल्प आत्मस्वरूप है अर्थात् शुद्धात्मा है, वही सम्यग्दर्शन का विषय है और सम्यग्दृष्टि को आगे की साधना में वही ध्यान का भी विषय है। श्लोक १७०-'जिसने सहज तेज से (अर्थात सहज परिणमनरूप परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा को भाने से) रागरूपी अन्धकार का नाश किया है (अर्थात् रागरूपी विभावभाव का जिसके भाने से नाश हुआ है अर्थात् जिसके कारण वीतरागता आयी है), जो मुनिवरों के मन में बसता है (अर्थात् मुनिवर उसका ही ध्यान करते हैं और उसे ही सेवन करते हैं अर्थात् उसमें ही अधिक से अधिक स्थिरता करने का पुरुषार्थ करते हैं), जो शुद्ध-शुद्ध (जो अनादि-अनन्त शुद्ध) है, जो विषयसुख में रत जीवों को सर्वदा दुर्लभ है (अर्थात् मुमुक्षु जीव को समस्त विषयकषाय के प्रति आदर छोड देना आवश्यक है अर्थात अत्यन्त आवश्यकता के सिवाय उनका जरा भी सेवन न करने से उनके प्रति आदर जाता है; उसकी परीक्षा के लिये 'मुझे क्या रुचता है?' ऐसा प्रश्न अपने को पूछकर उसका उत्तर खोजना और यदि उत्तर में संसार अथवा संसार के सुखों के प्रति आकर्षण/आदरभाव हो तो समझना कि मुझे अभी विषय-कषाय का आदर है, संसार का आदर है जो कि छोड़ने योग्य है, क्योंकि वह अनन्त परावर्तन कराने में सक्षम है), जो परम सुख का समुद्र है, जो शुद्ध ज्ञान है (अर्थात वह ज्ञान सामान्यमात्र है) और जिसने निद्रा का नाश किया है (अर्थात् इस शुद्धात्मा को भाने से जिन्होंने केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त किया है उन्होंने इस भावना के बल से ही निद्रा का नाश हुआ है) वह यह (शुद्धात्मा) जयवन्त है (अर्थात् वह शुद्धात्मा ही सर्वस्व है)।' __श्लोक १९०- 'जिसने नित्य ज्योति (अनादि-अनन्त शुद्धभावरूप परमपारिणामिकभाव) द्वारा तिमिरपुंज का नाश किया है, जो आदि-अन्तरहित है (अर्थात् तीनों काल शुद्ध ही है), जो परम कला सहित है और जो आनन्दमूर्ति है ऐसे एक शुद्ध आत्मा को जो जीव शुद्ध आत्मा में अविचल मनवाला होकर निरन्तर ध्याता है (अर्थात् उसका ही ध्यान करता है), वह यह आचारवान (चारित्रवान) जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है।'

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