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दृष्टि का विषय
जा सकता है कि इन्द्रियज्ञान स्व में जाने की सीढ़ी है क्योंकि इन्द्रिय भले पुद्गलरूप अजीव हो परन्तु उसके निमित्त से जो ज्ञान होता है, उस विशेषज्ञान को अर्थात् उस ज्ञानाकार को गौण करते ही वहाँ सामान्य ज्ञान अर्थात् ज्ञायक उपस्थित ही रहता है कि जो दृष्टि का विषय है कि जिसमें मैंपना करने से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है। क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है अर्थात् प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है।
भावार्थ-'....सारांश यह है कि स्वात्मरस में निमग्न होनेवाला भावमन स्वयं ही अमूर्त होने से स्वानुभूति के समय में आत्मप्रत्यक्ष करनेवाला कहने में आया है। जैसे श्रेणी चढ़ते समय ज्ञान की जो निर्विकल्प अवस्था है, उस निर्विकल्प अवस्था में ध्यान की अवस्था सम्पन्न श्रुतज्ञान अथवा उस श्रुतज्ञान के पहले का मतिज्ञान अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होता है, उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव चौथे गुणस्थान से लेकर सातवें गुणस्थानवर्ती हैं, उनका मतिश्रुतज्ञानात्मक भावमन भी स्वानुभूति के समय में विशेष दशा सम्पन्न होने से श्रेणी के जैसा तो नहीं, परन्तु उनकी भूमिका के योग्य निर्विकल्प तो होता है। इसलिए उस मतिश्रुतज्ञानात्मक भावमन को स्वानुभूति के समय में प्रत्यक्ष मानने में आता है, वहाँ यही कारण है कि मति-श्रुतज्ञान के बिना केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती परन्तु अवधि-मन:पर्ययज्ञान के बिना हो सकती है।'
___ स्वात्मरस में निमग्न होनेवाला भावमन अर्थात् विकल्पयुक्त आत्मा में से (=पर्याय में से) विकल्प को (=विशेष को) गौण करते ही अर्थात् विकल्प को, निर्विकल्प में निमग्न करने पर (=डुबाने पर) ही सामान्यरूप आत्मा अर्थात् परमपारिणामिकभाव की अनुभूति होती है कि जिसे निर्विकल्प अनुभूति कहा जाता है, जो कि अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष होती है कि जो अनुभव की विधि है अर्थात् वही सम्यग्दर्शन की पद्धति है। अब हम पंचाध्यायी उत्तरार्द्ध की (पण्डित देवकीनन्दनजी कत हिन्दी टीका, आधार सरल गुजराती अनुवादक सोमचन्द अम्बालाल शाह-प्रकाशक भगवान श्री कुन्दकुन्द कहान जैन शास्त्रमाला, पुष्प ३२, आवृत्ति १) गाथाओं में से यही सब भाव दृढ़ करेंगे।
__ गाथा ४६१-६२-अन्वयार्थ-‘अथवा इन्द्रियजन्य ज्ञान देश प्रत्यक्ष होता है, इसलिए वास्तव में वह अस्तिक्य, आत्मा के सुखादि की भाँति स्वसंवेदन प्रत्यक्ष किस प्रकार हो सकता है? ठीक है, परन्तु प्रथम के मति और श्रुत ये दो ज्ञान, परपदार्थों को जानते समय परोक्ष है और दर्शन मोहनीय का उपशम, क्षय तथा क्षयोपशम होने के कारण से स्वानुभव काल में प्रत्यक्ष हैं।'
गाथा १११८-अन्वयार्थ-'शंकाकार का उपरोक्त कथन ठीक है, क्योंकि जो इन्द्रियों के