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पर्याय परमपारिणामिकभाव की ही बनी हुई है
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भावार्थ-'प्रत्येक द्रव्य में पारिणामिकभाव होता है। जीव और पुद्गल में उसके दो प्रकार की क्रिया होती है एक शुद्ध तथा दूसरी अशुद्ध। प्रत्येक द्रव्य, वह क्रिया आप स्वयं करता होने से वह क्रिया पारिणमिकभावरूप है। जैसे जीव में क्रोध होता है, वह स्व अपेक्षा से पारिणामिकभाव (क्रिया) है। (अर्थात् औदयिकभाव वास्तव में तो पारिणामिकभाव का ही बना हुआ है)। (देखो, जयधवला भाग-१, पृष्ठ ३१९ तथा श्री षट्खण्डागम पुस्तक-५, पृष्ठ १९७-२४२-२४३) और विकारीभावों में कर्म के उदय की अपेक्षा बतलानी हो तब उस पर्याय को औदयिकी भी कहा जाता है (यही बात पूर्व में हमने बतलायी है कि औदयिकीभावरूप पर्याय वास्तव में पारिणामिकभाव की ही बनी हुई है कि जो उसका सामान्यभाव कहलाता है।) परन्तु इस कारण से कहीं ऐसा नहीं समझना कि जीव में पर का कुछ भी गुण आ जाता है।
दूसरा जो भाव (विभावभाव) जीव में से निकल जाने योग्य हो, वह अपना स्वरूप नहीं होने से निश्चयनय से वह अपना नहीं, उसे परभाव परगुणाकार इत्यादि नाम से पहिचाना जाता है, इस अपेक्षा से जीव के विकारभाव को निश्चयनय से पुद्गल परिणाम कहने में आया है क्योंकि वह जीव का स्वभाव नहीं और पुद्गल के सम्बन्ध से होता है, इसलिए वह विकारभाव निश्चयबन्ध है। वह विकारी पारिणामिकी क्रिया होने पर अपने गुण से च्युत होना वह अशुद्धता है।'
___ अर्थात् जो जीव का परमपारिणामिकभाव है अर्थात् जो जीव का सहज परिणमन है, वही परलक्ष्य से अशुद्धता रूप परिणमकर निश्चय बन्धरूप होता है और इसीलिए उस अशुद्धता को गौण करते ही परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा जो की सम्यग्दर्शन का विषय है वह हाजिर ही होता है और इसी अपेक्षा से समयसार गाथा १३ में भी बतलाया है कि 'नवतत्त्व में छिपी हुई आत्मज्योति' अर्थात् उन नौ तत्त्वरूप जो जीव का परिणमन है (पर्याय है) उसमें से अशुद्धियों को गौण करते ही जो शेष रहता है, वही परमपारिणामिकभावरूप शुद्धात्मा है, वही कारणशुद्धपर्याय है, वही दृष्टि का विषय है।