Book Title: Drushti ka Vishay
Author(s): Jayesh M Sheth
Publisher: Shailesh P Shah

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Page 118
________________ साधक को सलाह 101 कुछ भी सूचना पहुँचाये बिना अचानक हमला करता है, उसका कुछ तो ख्याल कर। काल की अप्रहत अरोक गति के समक्ष मंत्र तंत्र औषधादि सर्व साधन व्यर्थ हैं।' अर्थात् आत्मकल्याण के लिये ही सर्व पुरुषार्थ आदरना। आगे आत्मानुशासन गाथा १९६ में भी बतलाया है कि 'अहो! जगत के मूर्ख जीवों को क्या कठिन है? वे जो अनर्थ करें, उसका आश्चर्य नहीं, परन्तु न करे वही वास्तव में आश्चर्य। शरीर को प्रतिदिन पोसते हैं, साथ ही साथ विषयों को भी वे सेवन करते हैं। उन मूर्ख जीवों को कुछ भी विवेक नहीं कि विषपान करके अमरत्व चाहते हैं! सुख चाहते हैं! अविवेकी जीवों को कुछ भी विवेक या पाप का भय नहीं है तथा विचार भी नहीं है....' ___ हम जब पाप-त्याग के विषय में बतलाते हैं, तब कोई ऐसा पूछता है कि रात्रिभोजन त्याग इत्यादि व्रत अथवा प्रतिमायें तो सम्यग्दर्शन के बाद ही होते हैं तो हमें उस रात्रिभोजन का क्या दोष लगेगा? तो उन्हें हमारा उत्तर होता है कि-रात्रिभोजन का दोष सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि को अधिक ही लगता है क्योंकि मिथ्यादृष्टि उसे रच-पचकर सेवन करता होता है जबकि सम्यग्दृष्टि को तो आवश्यक न हो, अनिवार्यता न हो तो ऐसे दोषों का सेवन ही नहीं करता और यदि किसी काल में ऐसे दोषों का सेवन करता है तो भी भीरुभाव से और रोग की औषध के रूप में करता है, नहीं कि आनन्द से अथवा स्वच्छन्द से, क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव को तो भोजन करना पड़ता है वह भी मजबूरीरूप लगता है, रोगरूप लगता है और उससे शीघ्र छुटकारा ही चाहता है। इसलिए किसी भी प्रकार का छल किसी को धर्म शास्त्रों में से ग्रहण नहीं करना, क्योंकि धर्मशास्त्रों में प्रत्येक बात अपेक्षा से होती है, इसलिए व्रत और प्रतिमायें पाँचवें गुणस्थान में कही है, उसका अर्थ ऐसा नहीं निकालना कि अन्य कोई निम्न भूमिकावाले उसे अभ्यास के लिए अथवा तो पाप से बचने के लिये ग्रहण नहीं कर सकते। बल्कि सबको अवश्य ग्रहण करने योग्य ही है, क्योंकि जिसे दुःख प्रिय नहीं ऐसे जीव दुःख के कारणरूप पाप किस प्रकार आचरण कर सकते हैं? अर्थात् आचरण कर ही नहीं सकते। समझने की बात मात्र इतनी ही है कि सम्यग्दर्शन के पहले अणुव्रती अथवा तो महाव्रती, वह अपने को अनुक्रम से पाँचवें अथवा छठे-सातवें गुणस्थान में न समझकर (मानकर) मात्र आत्मार्थ (अर्थात् आत्मा की प्राप्ति के लिये) अभ्यासरूप ग्रहण किये हुए अणुव्रती अथवा महाव्रती समझना और लोगों को भी वैसा ही बतलाना कि जिससे लोगों को ठगने का दोष भी नहीं लगे।

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