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पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ
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नहीं तथा उनके साधक प्रमाण का अभाव इसलिए है कि लोक में कोई दृष्टान्त भी नहीं मिल सकता । '
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उन पक्षों की सिद्धि के लिए इस
अर्थात् द्रव्य को परिणामी सिद्ध किया और फिर भी उसे टिकते भाव की अपेक्षा से अपरिणामी भी कहा जाता है परन्तु एकान्त से नहीं क्योंकि जैन सिद्धान्त में अनेकान्त की ही जय होती है, नहीं कि एकान्त की ।
गाथा ८३-८४ - अन्वयार्थ - 'जैसे आम के फल में स्पर्श, रस, गंध और वर्ण ये चारों पुद्गल द्रव्य के गुण अपने-अपने लक्षण से भिन्न हैं तथा निश्चय से वे सब अखण्ड देशी (द्रव्य) होने से किसी भी प्रकार से पृथक् भी नहीं किये जा सकते। इसलिए जैसे विशेषरूप होने के कारण से पर्यायदृष्टि से (भेदविवक्षा से) देश, देशांश, गुण और गुणांशरूप स्वचतुष्टय कहा जा सकता है तथा सामान्य रूप की अपेक्षा से अर्थात् द्रव्यार्थिकदृष्टि से (अभेद विवक्षा से) वे ही सब एक आलाप से एक अखण्ड द्रव्य कहे जा सकते हैं।' अर्थात् जो विशेष अपेक्षा से पर्याय है, वही सामान्य अपेक्षा से द्रव्य है, जैसे कि उपादान स्वयं ही कार्यरूप परिणमता है, यह बात तो सर्व विदित है, उसमें उपादान वही द्रव्य है और कार्य है वह पर्याय है, इससे यह बात सिद्ध होती है कि द्रव्य स्वयं ही द्रवता है अर्थात् परिणमता है और द्रव्य स्वयं ही वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से पर्याय कहलाता है।
जैसे कि मिट्टी का पिण्ड नष्ट होकर मिट्टी के घड़ेरूप बनने से मिट्टीरूपी द्रव्य की एक पर्याय का नाश हुआ और नयी पर्याय का उत्पाद हुआ, परन्तु दोनों में मिट्टित्व (मिट्टीपना) तो कायम ही रहा, नित्य ही रहा, इस अपेक्षा से कूटस्थ रहा - अपरिणामी रहा । वह इस प्रकार ि मिट्टीरूप द्रव्य किसी अन्य द्रव्यरूप नहीं परिणम जाता, इसलिए उसे इस अपेक्षा से भी कूटस्थ अथवा अपरिणामी कहा जा सकता है और दूसरा, उस पिण्ड और घड़े में मिट्टीपना ऐसा का ऐसा ही रहता है, इस अपेक्षा से भी उसे कथंचित् कूटस्थ अथवा कथंचित् अपरिणामी कहा जा सकता है। अन्यथा एकान्त से अपरिणामी कहने पर तो वहाँ एक भाग अपरिणामी और एक भाग में परिणामऐसा मानने से तो द्रव्य का ही नाश हो जाये और वह द्रव्य द्रवे भी नहीं, इसलिए उसका कुछ कार्य ही न मानने पर द्रव्यपने का ही नाश हो जाये। इस प्रकार उपादान से कार्य को भिन्न मानने आकाशकुसुमवत्, द्रव्य का ही अस्तित्व न रहे और उसके कार्य का भी अस्तित्व नहीं रहे।
इसलिए इसी प्रकार समझना कि उपादान स्वयं ही कार्यरूप परिणमित हुआ है और इस कारण से उस परिणाम में पूर्ण उपादान उपस्थित ही है अर्थात् परिणाम ( कार्य ) स्वयं उपादान का