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दृष्टि का विषय
अखण्डित मृत्यु से अनन्त बार मरा और आत्मा के सर्व स्वाधीन सुख का नाश किया; मुझे तो लगता है कि - तू अविवेक, परलोक भय से रहित, निर्दय और कठोर परिणामी है क्योंकि महापुरुषों से निन्दित वस्तु का ही तू अभिलाषी हुआ है। धिक्कार है उन कामी पुरुषों को कि जिनका अन्त:करण निरन्तर काम-क्रोधरूप महाग्रह (डाकू-पिशाच) के वश रहा करता है! ऐसा प्राणी इस जगत में क्या-क्या नहीं करता? सर्व कुकर्म करता है।' आगे आत्मानुशासन गाथा ५४ में भी बतलाया है कि हे जीव! इस अपार और अथाह संसार में परिभ्रमण करते-करते तूने अनेक योनियाँ धारण की, महादोषयुक्त सप्त धातुमय मल से निर्मित ऐसा तेरा यह शरीर है, क्रोधादि कषायजन्य मानसिक और शारीरिक दुःखों से तू निरन्तर पीड़ित है। हीनाचर, अभक्ष्य भक्षण और दुराचार में तू निमग्न हो रहा है और ऐसा कर-करके तू तेरे आत्मा को ही निरन्तर ठग रहा है। और जरा से ग्रस्त (ग्रसित) है। मृत्यु के मुख के बीच पड़ा है तथापि व्यर्थ उन्मत्त हो रहा है, यही परम आश्चर्य है! त आत्म कल्याण का कट्टर शत्र है? अथवा क्या अकल्याण को चाहता है?'
कोई मात्र पुण्य से ही मोक्ष मिलेगा ऐसा समझते हों तो योगसार दोहा १५ में आचार्य भगवन्त ने बतलाया है कि ‘और यदि तू अपने को तो जानता नहीं (अर्थात् सम्यग्दर्शन नहीं)
और सर्वथा अकेला पुण्य ही करता रहेगा तो भी तू बारम्बार संसार में ही भ्रमण करेगा परन्तु शिवसुख को प्राप्त नहीं कर सकेगा।' अर्थात् सम्यग्दर्शन के बिना शिवसुख की (मोक्ष की प्राप्ति शक्य ही नहीं है। आगे योगसार दोहा ५३ में भी आचार्य भगवन्त बतलाते हैं कि 'शास्त्र पढ़ने पर भी जो आत्मा को नहीं जानते (अर्थात् जिन्हें सम्यग्दर्शन नहीं है), वे भी जड़ हैं; इस कारण वे जीव निश्चय से निर्वाण को प्राप्त नहीं करते, यह बात स्पष्ट है।' अर्थात् मिथ्यात्व (अर्थात् सम्यग्दर्शन की अनुपस्थिती) वह अनन्त संसार का चालक बल है अर्थात् मिथ्यात्व, वह सर्व पापों का राजा है जो कि सम्यग्दर्शन से ही नष्ट होता है अर्थात् सम्यग्दर्शन, निर्वाण को प्राप्त करने के लिये अर्थात् शाश्वत् सुख की प्राप्ति के लिये परम आवश्यक है।
इसीलिए स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २९० से २९६ वें में बतलाया है कि - यह मनुष्यगति, आर्यखण्ड, उच्च कुल, धनवानपना, इन्द्रियों की परिपूर्णता, निरोगी शरीर, दीर्घायु, भद्र परिणाम, सरल स्वभाव, साधु पुरुषों की संगति, सम्यग्दर्शन-सत्श्रद्धान, चारित्र इत्यादि एक से एक अधिक-अधिक दुर्लभ है। तथा आत्मानुशासन गाथा ७५ में बतलाया है कि मनुष्य प्राणी की दुर्लभता और उत्तमता के कारण विधिरूप मन्त्री ने उसकी अनेक प्रकार से रक्षा करके दुष्ट परिणामी नरक के जीवों को अधोभाग में रखा, देवों को ऊर्ध्व भाग में रखा, लोक के चारों