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दृष्टि का विषय
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दृष्टि भेद से भेद
वस्तु
में सर्व भेद दृष्टि अपेक्षा से हैं, नहीं कि वास्तविक । जैसे कि - प्रमाणदृष्टि से देखने पर वस्तु द्रव्य-पर्यायमय है अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप ही है, जबकि उसी वस्तु को पर्यायदृष्टि से देखने में आवे अर्थात् उसे मात्र उसके वर्तमान कार्य से, उसकी वर्तमान अवस्था से ही देखने में आवे तो वह वस्तु मात्र उतनी ही है अर्थात् पूर्ण द्रव्य उस समय मात्र वर्तमान अवस्थारूप ही ज्ञात होता है अर्थात् उस वर्तमान अवस्था में ही पूर्ण द्रव्य छुपा हुआ है कि जो भाव समयसार गाथा १३ में दर्शाया गया है अर्थात् वर्तमान, त्रिकाली का ही बना हुआ है। जैसे स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा गाथा २६९ में बतलाया है कि 'जो नय वस्तु को मात्र विशेषरूप से (पर्याय से) अविनाभूत (अर्थात् पर्यायरहित द्रव्य नहीं परन्तु पर्याय सहित द्रव्य को अर्थात् ) सामान्यरूप को नानाप्रकार की युक्ति के बल से (अर्थात् पर्याय को गौण करके द्रव्य को) साधे वह द्रव्यार्थिक (द्रव्यदृष्टि) है।' भावार्थ- 'वस्तु का स्वरूप सामान्य विशेषात्मक है। विशेष के बिना सामान्य नहीं होता...' और गाथा २७० भी बतलाया है कि 'जो नय अनेक प्रकार से सामान्य सहित सर्व विशेष को उसके साधन का जो लिंग (चिह्न) उसके वश से साधता है, वह पर्यायार्थिकनय (पर्यायदृष्टि) है।’ भावार्थ-‘सामान्य (द्रव्य) सहित उसके विशेषों को (पर्यायों को) हेतुपूर्वक साधे (अर्थात् द्रव्य को गौण करके पर्याय को ग्रहण करे), वह पर्यायार्थिकनय (पर्यायदृष्टि) है....' अर्थात् पूर्ण द्रव्य जब मात्र वर्तमान अवस्थारूप - पर्यायरूप ही ज्ञात होता है, उसे ही पर्यायदृष्टि कहा जाता है और उस समय उस वर्तमान पर्याय में ही पूर्ण द्रव्य छुपा हुआ है।
इसलिए यदि ऐसा कहा जाये कि वर्तमान पर्याय का सम्यग्दर्शन के विषय में समावेश नहीं, तो वहाँ समझना पड़ेगा कि किसी भी द्रव्य की वर्तमान पर्याय का लोप होते ही, पूर्ण द्रव्य का ही लोप हो जायेगा, वहाँ वस्तु का ही अभाव हो जायेगा ; इसलिए दृष्टि के विषय में (सम्यग्दर्शन के विषय में) वर्तमान पर्याय का अभाव न करके, मात्र उसमें रही हुई अशुद्धि को (विभावभाव को) गौण करने में आता है; जो हम आगे बतलायेंगे - समझायेंगे।
उसी पूर्ण वस्तु को यदि द्रव्यदृष्टि से देखने में आवे तो वह सम्पूर्ण वस्तु मात्र द्रव्यरूप ही-ध्रुवरूप ही-अपरिणामीरूप ही ज्ञात होती है, वहाँ पर्याय ज्ञात ही नहीं होती क्योंकि तब पर्याय उस द्रव्य में अन्तर्भूत हो जाती है अर्थात् पर्याय गौण हो जाती है और पूर्ण वस्तु ध्रुवरूप- द्रव्यरूप