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विभिन्न प्रकार के कर, भाग, शुल्क आदि
६७१ रूप में) षष्ठ भाग के लिए हुआ है। अशोक के रुंमिन्देई स्तम्भ-लेख (कॉर्पस इंस्क्रिप्सनम् इण्डिकेरम्, जिल्द १, पृ० १६४) में आया है कि लुम्मिनि ग्राम बलि-मुक्त कर दिया गया, किन्तु उसे उपज का ३ भाग देना पड़ता था (लुमिनिग्राम उबलिक (उद्वलिकः) कटे अठभागिये (अष्टभागिक:) च) । यहाँ 'बलि' एवं 'भाग' में अन्तर दिखाया गया है, उपहार अर्थ में 'बलि' व्यापक शब्द है, 'कर' शब्द लगान (टैक्स) का सामान्य अर्थ प्रकट करता है। और देखिए आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।१०।२६।१०), मनु (७/१२८, १२६, १३३), वसिष्ठ (१६।२३), विष्णुधर्मसूत्र (३।२६-२७) । 'भाग' शब्द साधारण करों के लिए प्रयुक्त हुआ है और इसका अर्थ है राजा का भूमि-खगहों, वृक्षों, ओषधियों, पशुओं, द्रव्यों आदि पर भाग या हिस्सा । इस विषय में देखिए मनु (७।१३०-१३१,८।३०५), विष्णुधर्मसूत्र (३।२५) । 'भाग' का यह अर्थ अति प्राचीन है । भागदुघ,राजा के रत्नियों में एक रत्नी था। अमरकोश में बलि, कर भाग पर्याय माने गये हैं।
शुल्क शब्द का अर्थ है चुंगी, जो क्रेताओं एवं विक्रेताओं द्वारा राज्य के बाहर या भीतर ले जाने या लाने वाले सामानों पर लगायी जाती थी (शुक्र ० ४।२।१०८) । पाणिनि (४।३।७५) के 'आयस्थानेभ्य ष्ठक' सूत्र की व्याख्या करते हुए महाभाष्य ने 'शौल्किक' एवं 'गौल्मिक' उदाहरण दिये हैं, जिससे प्रकट होता है कि शुल्क, जो चुंगी की चौकियों पर लिया जाता था, आय का एक रूप था।
राज्य की आय के प्रमुख एवं सतत चलने वाले साधन तीन थे, यथा-उपज पर राजा का भाग, चुगी एवं दण्ड से प्राप्त धन (अपराधियों एवं हारे हुए मुकदमेबाजों से प्राप्त धन, अर्थात् उन पर लगाये गये आर्थिक दण्डों से प्राप्त धन) । इस विषय में देखिए शान्ति० (७१।१०) एवं शुक्र० (३।२।१३)। प्रमुख करदाता थे कृषक, व्यापारी, श्रमिक एवं शिल्पकार (मनु १०।११६-१२०) । वर्धमान के दण्डविवेक (पृ. ५) में उद्धृत मनु (८।३०७) के अनुसार वह राजा, जो बिना रक्षा किये बलि, कर, शुल्क, प्रतिभोग (मुद्रित संस्करण में प्रतिभाग) एवं दण्ड (अर्थ-दण्ड या जुरमाना) लगाता है, सीधे नरक को जाता है। वर्धमान ने उसे कर कहा है जो प्रति मास ग्रामवासियों एवं नगरवासियों से ( कुल्लूक के मत से प्रत्येक मास में, या वर्ष में दो बार, भाद्रपद या पौष में) लिया जाता है, व्यापारियों से प्राप्त १२ भाग शुल्क तथा प्रति दिन बेचे गये फल, फूल एवं शाक पर लगने वाला प्रतिभोग कहा गया है। इन कतिपय तथा अन्य प्रकार के करों के विषय में यहाँ कुछ लिख देना आवश्यक जान पड़ता है।
मनु (७.१३०), गौतम (१०।२४), विष्णुधर्मसूत्र (३।२२), मानसोल्लास (२३३।१६३, पृ० ४४) एव अन्य ग्रन्थों में राजा भूमि से प्राप्त अन्न के या १३ भाग का (विष्णु० में १, गौतम में १० भाग भी) अधिकारी माना गया है। बृहस्पति एवं विष्णुधर्मोत्तर (२।१।६०-६१) में इन करों के उगाहने की दशाओं का वर्णन मिलता है । राजा शूकधान्य (ऐसे धान्य या अनाज जिनमें टूड हो, यथा जौ, गेहूँ आदि) का भाग, शिम्बीधान्य ऐसे धान्य जिनके बीच में बीज हो या बीजकोश) का भाग, वर्षों से न जोते गये खेत से उत्पन्न अन्न का १० भाग, वर्षा ऋतु में उत्पन्न अन्न का भाग एवं वसन्त ऋतु में उत्पन्न अन्न का भाग लेता था।१५ देश की परम्परा के अनुसार कर वर्ष में या छ: मास में एक बार उगाहा जाता था। कौटिल्य द्वारा उपस्थापित विभिन्न कर-परिणामों की ओर सीताध्यक्ष के
१५. विष्णुधर्मोत्तरे। शूकधान्येषु षड्भागं शिम्बीधान्येष्वथाष्टमम् । राजा बल्यर्थमादद्याद्देशकालानुरूपतः॥ शूकशिम्ब्यतिरिक्ते धान्ये मनुगौतमोक्तो द्वादशो दशमो वा भागः । तथा च बृहस्पतिः । दशाष्टषष्ठं नृपतेर्भागं दद्यात् कृषीवलः । खिलाद्वर्षावसन्ताच्च कुष्यमाणाद्यथाक्रमम् ॥... ... स एवाह । देशस्थित्या बलि वधुर्भूतं षण्मासवार्षिकम् । एष धर्मः समाख्यातः कोनाशानां पुरातनः ॥ राजनीतिप्रकाश (पृ० २६२-२६३) एवं राजधर्मकाण्ड (पृ० ६३, अन्तिम दो श्लोक)
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