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धर्मशास्त्र का इतिहास धिकार प्राप्त हो जाता है (बम्बई उच्च न्यायालय), किन्तु जब वह पहले रिक्थाधिकार पा चुकी हो और उसके पश्चात पुनविवाहित हुई हो तो वह प्रथम रिक्थाधिकार से वंचित हो जाती है ( हिन्दू विडोज रीमैरेज एक्ट,१८५६, परिच्छेद २)।
जब माता पुत्र का उत्तराधिकार पाती है तो वह सम्पत्ति का विघटन नहीं कर सकती, किन्तु वैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति में व्यय कर सकती है । यदि विज्ञानेश्वर द्वारा प्रस्तुत स्त्रीधन की परिभाषा की शाब्दिक व्याख्या की जाय तो पुत्र वाला उत्तराधिकार भी स्त्रीधन कहलाएगा। एक अभिलेख (एपिग्रैफिया इण्डिका, जिल्द १४, प. ८३, मुम्मड़ी तायक के श्रीरंगम् ताम्रपत्र, शक संवत् १२८०) से पता चलता है कि अपने पुत्र पराशरभट को प्राप्त ग्राम उत्तराधिकार में माता ने श्रीरंगम् के रंगनाथ देवता के लिए दान कर दिया।
भाई एवं भाई के पुत्र--याज्ञवल्क्य एवं विष्णु के मत से माता-पिता के अभाव में भाई उत्तराधिकार पाते हैं और उनके अभाव में भाई के पुत्र उत्तराधिकार के अधिकारी होते हैं। किन्तु इस विषय में मतैक्य नहीं है, क्योंकि शंख, मनु (६।१८५) आदि ने माता-पिता के पूर्व भाइयों को ही अधिकार दिया है। किन्तु आगे चलकर समझौता हो गया और 'मिताक्षरा'से लेकर आगे के सभी निबन्धों ने निर्णय दिया कि माता-पिता के उपरान्त ही भाई लोग उत्तराधिकार पाते हैं। मिताक्षरा का कथन है कि सहोदर भाई वैमात्रों-सौतेले भाइयों की अपेक्षा वरीयता पाते हैं । इसने आगे कहा है कि दोनों प्रकार के भाइयों के अभाव में भाई के पुत्रों को उतराधिकार मिलता है, किन्तु यहाँ भी सहोदर भाइयों के पुत्रों को सौतेले भाइयों के पुत्रों की अपेक्षा वरीयता मिलती है। व्यवहारमयूख' को छोड़कर दायभाग आदि निबन्धों ने 'मिताक्षरा' के इस मत को स्वीकार किया है। सहोदर भाई सौतेले भाई की अपेक्षा मृत भाई के अधिक सन्निकट होते हैं, क्योंकि उनकी एवं मृत व्यक्ति की माता एक ही होतो है । दायभाग' ने तर्क दिया है--''सहोदर भाई उन्हीं तीन पितृ-पूर्वजों और उन्हीं तीन मात-पूर्वजों को पिण्डदान करता है, जिनसे मृत व्यक्ति पिण्डदान करने के लिए बाध्य रहता है और उसे उस सौतेले भाई की अपेक्षा वरीयता मिलती है जो मृत व्यक्ति के केवल तीन पितृ-पूर्वजों को पिण्डदान करताहै (वह मृत व्यक्ति के मातृ-पूर्वजों को पिण्डदान नहीं करता)।"३५ यही बात अपरार्क' (पृ.० ७४५) ने भी कही है। 'व्यवहारमयूख'ने सहोदर भाई के पुत्र को सौतेले भाई से जो वरीयता दी है उसके लिए उसने कई कारण दिये हैं--'भाई' शब्द 'सहोदर' (एक ही पेट से उत्पन्न) के अर्थ में लिया जाता है, उसका प्रयोग सौतेले भाई' के लिए केवल गौण रूप में होता है। मीमांसा का एक सामान्य नियम है कि एक ही शब्द एक ही वाक्य या नियम में 'मख्य' एवं 'गौण' के अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिये।२६ जिस प्रकार 'माता' शब्द केवल जननी के लिए (विमाता के लिए नहीं) प्रयुक्त होता है, उसी प्रकार भ्रातरः' शब्द से सहोदर एवं सौतेले दोनों भाई नहीं समझे जा सकते । व्यवहारमयख की बात ठीक नहीं है, दायभाग ने स्पष्ट किया है कि जब याज्ञवल्क्य (२।१३८) सगे भाई की बात कहते हैं तो 'सोदर' शब्द का प्रयोग करते हैं किन्तु वैमात्र भाई के लिए 'अन्योदर्य' या 'अन्यमातृज' का प्रयोग करते हैं (२।१३६) । अतः “भ्रातरः" शब्द से सगे एवं सौतेले दोनों प्रकार के भाइयों का बोध होता है । 'स्मतिसंग्रह' जैसी स्पतियों में भाई के दो प्रकार गिनाये गये हैं; 'सोदर्य' एवं 'असोदर्य' (स्मृतिच० २, पृ० ३०० एवं व्यवहारप्रकाश पृ० ५२७) ।
२५. सापत्नस्य च सोदरान्मृतदेयषाटपौरुषिकपिण्डदातुर्मतभोग्यमात्रपित्रादिपिण्डत्रयदाततया जघन्यत्वात्। दायभाग (११।५।१२)।
२६. मुख्य एव विनियोक्तव्यो मन्त्रो न गौण इति । कुतः, उभयाशक्यत्वात् । शबर (जैमिनि ३।२।१)। मिलाइये रायभाग (३।३०, पृ० ६७)। 'न ह्य कस्मिन्प्रकरणे एकस्मिंश्च वाक्ये एकः शब्दः सकृदुच्चरितो बहुभिः संबध्यमानः क्वचिन्मुख्यः क्वचिद् गौण इत्यध्यवसातुं शक्यम् । वरूप्यप्रसंगात् । शारीरक भाष्य (ब्रह्मसूत्र २।४।३) ।
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