Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

View full book text
Previous | Next

Page 384
________________ स्त्रीधन का स्वामित्व और उत्तराधिकार ६४३ अवस्थाओं में इन्हीं स्मृतियों ने कुछ छूट भी दी है । इस विषय में देखिये याज्ञ० (२।१४७), मनु (८।२६) । स्त्रीधन को यदि पति, पुत्र, माता एवं भाई बलवश ले लें या उसका किसी प्रकार उपयोग कर लें तो उन्हें ब्याज के साथ उसे लौटाना पड़ता है। केवल दुःखप्रद परिस्थितियों आदि में ही उसका उपयोग हो सकता है। देखिये कात्यायन (अपरार्क पृ० ७५५; दायभाग ४।२।२४, पृ०७८; स्मृतिच० २, पृ० २८२); देवल (स्मृतिच० २, पृ० २८३; अपरार्क पृ० ७५५; व्य० मयूख पृ० १५६) । कात्यायन (६०८) ने एक विशेष नियम दिया है-'यदि किसी की दो पत्नियाँ हों और उनमें एक उपेक्षित हो तो उसको उसका स्त्रीधन लौटा देना पड़ता है. राजा को चाहिये कि वह ऐसा करने में उसकी सहायता करे, भले ही उसने (उपेक्षिता पत्नीने) अपने पति को प्रेमवश वह धन दे दिया हो।" कात्यायन (६१६) ने एक विशेष नियम दिया है--"यदि पति स्त्रीधन देने की प्रतिज्ञा कर ले तो उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र (अपने पुत्र या विमाता-पुत्र) को उसे ऋण के रूप में चुकाना चाहिये, किन्तु ऐसा तभी होता है जब कि विधवा पति के कुल में ही रहे और अपने मैके में न जाय।" 'स्मृतिचन्द्रिका' एवं 'व्यवहारप्रकाश' (पृ० ५४६) ने कहा है कि पौत्रों एवं प्रपौत्रों को भी इसी प्रकार पितामह एवं प्रपितामह द्वारा प्रतिश्रुत स्त्रीधन ऋण के रूप में लौटाना चाहिये। यदि स्त्री दुश्चरित्र हो, व्यभिचार में धन का अपव्यय करती हो तो व्य० प्र० एवं वि० चि० के मत से उसका स्त्रीधन छीन लेना चाहिये । स्त्रीधन का उत्तराधिकार--इस विषय में हिन्दू व्यवहार-शास्त्र में बहत-से मत-मतान्तर पाये जाते हैं। किन्तु एक बात में सबका मत एक है; स्त्रीधन का उत्तराधिकार सर्वप्रथम कन्याओं को प्राप्त होना चाहिये, अर्थात् कन्याओं को पुत्रों की अपेक्षा वरीयता मिलनी चाहिये । किन्तु आगे चलकर कुछ लेखकों ने पुत्रों को कन्याओं के साथ जोड़ दिया और कुछ स्त्रीधन-प्रकारों में पुत्रों को वरीयता दे दी। इसका सम्भवतः कारण यह था कि आगे चलकर स्त्रीधन का विस्तार हो गया और लोगों को यह बात नहीं रुची कि स्त्रियों को लम्बी सम्पत्ति मिले। इस विषय में लोकाचार एवं काल-क्रम का विशेष हाथ रहा है। निबन्धों ने बहुधा कहा है कि उनकी व्याख्या लोकाचार पर भी निर्भर रहती है। स्त्रीधन के उत्तराधिकार की भिन्नता स्त्री के विवाहित होने या न होने, या अननुमोदित या अनुमोदित विवाहप्रथा से विवाहित होने तथा स्त्रीधन के प्रकार या व्यवहार-शाखा पर अवलम्वित है। सर्वप्रथम हम स्मृति-वचनों पर ध्यान दें। यह प्राचीनतम उक्ति गौतम (२८।२२) की है--"स्त्रीधन (सर्वप्रथम)पुत्रियों को मिलता है, (प्रतियोगिता होने पर) कुमारी कन्याओं को वरीयता मिलती है तथा विवाहितों में उसको जो निर्धन होती है, वरीयता मिलती है।" मनु (६।१६२-१६३) का कथन यों है--"माता के मर जाने पर सगे भाई एवं बहिनें उसकी सम्पत्ति समान रूप से बाँट लेते हैं। स्नेहानुकूल उन पुत्रियों की पुत्रियों को भी मिलना चाहिये।" मनु (६१६५) का कथन है कि स्त्रीधन के छः प्रकार, अन्वाय स्त्रीधन, पति-प्रदत्त स्नेह-दान पति के रहते मर जाने पर सन्तानों को मिलने चाहिये । मनु (६१६२-१६३) को टीकाकारों ने कई ढंग से लिया है। सर्वज्ञ-नारायण के मत से माता की सम्पत्ति का अर्थ है पारिभाषिक स्त्रीधन के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति । बहत से टीकाकारों ने बहस्पति का अनुसरण करते हुए कहा है कि सगा भाई एवं कुमारी बहिने साथ-साथ उत्तराधिकार पाते हैं, विवाहित बहिनें (अर्थात् स्त्री की कन्याएँ जिनके उत्तराधिकारी होते हैं) केवल थोड़ा (कुल्लूक के मत से भाइयों का एक-चौथाई भाग) पाती हैं। मनु (८1१६६-१६७) ने व्यवस्था दी है कि जब स्त्री ब्राह्म, देव, आर्ष, प्राजापत्य एवं गांधर्व नामक विवाहप्रकारों से विवाहित होती हैं और सन्तानहीन मर जाती हैं तो स्त्रीधन पति को मिल जाता है, किन्तु यदि उसका विवाह आसुर या अन्य दो विवाह-प्रथाओं के अनुसार होता है तो सन्तानहीन होने पर उसका धन उसके माता-पिता को मिल जाता है। याज्ञ० (२।११७) के अनुसार कन्याएँ माता का धन पाती हैं और उनके अभाव में पुत्रों का अधिकार होता है। याज्ञ० (२।१४४) ने पुनः कहा है कि स्त्रीधन कन्याओं को मिलता है किन्तु यदि स्त्री सन्तानहीन मर जाती है तो स्त्रीधन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454