Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 2
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 398
________________ दृष्ट और अदृष्ट प्रयोजन के अनुसार शास्त्रों को प्रामाणिकता ६५७ अंग (यथा ध्वनिविद्या, व्याकरण, छंद आदि) अंशत: वेद और लौकिक अनुभव पर आधारित हैं। मनु (१२।१०५१०६) के मत से मीमांसा और न्याय वेद की सम्यक् व्याख्या एवं परिज्ञान के लिए आवश्यक हैं । मनु ने तो यहां तक कह डाला है कि सांख्य (जो प्रधान नामक विश्व के प्रमुख कारण का विवेचन करता है) या वेदान्त (जो पुरुष को विश्व का कारण बतलाता है), अणुवाद का सिद्धान्त (कणाद द्वारा घोषित) आदि विश्व की उत्पत्ति एवं नाश की व्याख्या में उपयोगी हैं और यह बतलाते हैं कि किस प्रकार यज्ञ-सम्पादन से सूक्ष्म अपूर्व का उदय होता है, जिससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है, और यह भी प्रकट करते हैं कि किस प्रकार मानवीय उद्योग एवं भाग्य का अपना-अपना कार्य-क्षेत्र है (अर्थात् मानवीय उद्योग के बिना विश्व की उत्पत्ति होती है और उसके रहते विनाश भी होता है) । कुमारिल एक पग आगे भी बढ़ते हैं और यहां तक कहते हैं कि विज्ञानवाद, अनात्मवाद, क्षणिकवाद नामक बौद्ध सिद्धान्तों का उदय उपनिषदों के अर्थवाद-वचनों से ही हुआ है और वे विषय-भोग की सीमातिरेक आसक्ति छोड़ने के लिए मनुष्य को प्रेरित करते हैं और इसीलिए उनका अपना उपयोग एवं महत्त्व है। उन्होंने अंत में यह निष्कर्ष निकाला है कि सभी प्रकार के ज्ञानों एवं ग्रन्थों के विषय में, जहां कर्म के फल का उदय भविष्य के गर्भ में बतलाया गया है और वर्तमान में उसके घटने का अनुभव सम्भव नहीं है, इस प्रकार का कार्य वेद पर आधारित माना जाना चाहिये । किन्तु जहां ( यथा आयुर्वेद शास्त्र में) फल को अन्य पुरुषों में घटित होते हुए देखा जा सकता है, वहां, अर्थात् जिस ज्ञान पर वह फल आधारित है, वह प्रामाणिक माना जा सकता है, क्योंकि यहां फल स्पष्ट रूप से प्रकट हो जाता है। धर्मशास्त्र-सम्बन्धी निवन्धों ने भी स्मतियों के वेदाधार या प्रत्यक्षीकृत उपयोग अथवा उद्देश्य या वत्तियों के विषय में चर्चा की है। अपरार्क (पृ० ६२६-६२७) ने भविष्यपुराण के उन बचनों को उद्धृत किया है जिनमें स्मृतिविषय पांच कोटियों में बांटे गये हैं और उनकी व्याख्या की गयी है-(१) वे जो दृष्ट या स्पष्ट देखे जानेवाले उद्देश्य (अर्थ) या वृत्ति पर आधारित हैं; (२) वे जो अदृष्ट (पारलौकिक) उद्देश्यों पर आधारित हैं; (३) वे जो दृष्ट एवं अदष्ट दोनों प्रकार के अर्थों (उद्देश्यों) पर आधारित हैं ; (४) वे जो तर्क या न्याय पर आधारित हैं : (५) वे जो केवल अति ख्यात एवं निश्चित बातों को दुहराते हैं। इन पांचों में प्रथम को छोड़कर सभी, भविष्यपुराण के मत से, वेद पर आधारित हैं । इन पांचों के उदाहरण इसी पुराण द्वारा इस प्रकार दिये गये हैं, यथा--(१) वह स्मति (अर्थशास्त्र या दण्डनीति) जिसमें छः गुणों (सन्धि आदि), चार उपायों (साम, दान आदि), राज्य-विभागों के अध्यक्षों तथा कण्टकों का विवेचन किया गया है; (२) 'सन्ध्या करनी चाहिये' या 'श्वमांस नहीं खाना चाहिये' आदि नियम; (३) ब्रह्मचारी को पलाश-दण्ड रखना चाहिये (रक्षा के लिए रखा जाने वाला दण्ड दृष्टार्थ है, किन्तु यहाँ पलाश-दण्ड की व्यवस्था है जो अदृष्टार्थ का द्योतक है); (४) जब कोई कहे कि होम सूर्योदय के पूर्व करना चाहिये और कोई यह कहे कि सूर्योदय के उपरान्त करना चाहिये, तो यहाँ तर्क से विकल्प का सहारा लेना चाहिये (मनु २।१५); ८. तथा च भविष्यपुराणम् । दृष्टार्था च स्मृति काचिददृष्टार्था तथा परा। वृष्टादृष्टार्थरूपान्या न्यायमूला तथापरा ॥ अनुवावस्मृतिस्त्वन्या शिष्टदृष्टा तु पञ्चमी । सर्वा एता वेदमूला दृष्टार्थ (र्थाः? ) परिहृत्य तु ।। षाड्. गुण्यस्य यथायोगं प्रयोगात्कार्यगौरवात् । (प्रयोगः कार्य-?) । सामादीनामुपायानां योगो व्याससमासतः ।। अध्यक्षाणां च निक्षेपः कण्टकानां निरूपणम । दृष्टार्थेयं स्मृतिः प्रोक्ता ऋषिभिर्गरुडाग्नज । सन्ध्योपास्तिः सदा कार्या शुनो मांसं न भक्षयेत् । अदुष्टार्था स्मुतिः प्रोक्ता ऋषिभिर्ज्ञानकोविदः । पालाशं धारयेद्दण्डमुभयार्थ विदुर्बुधाः । विरोध तु विकल्पः स्याज्जपहोमश्रुतौ यथा ॥ श्रुतौ दुष्टं यथा कार्य स्मृतौ न सदृशं यदि । अनूक्तवादिनी सा तु पारिवाज्यं यथा गृहात्॥ अपराकं (पृ० ६२६-६२७) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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